मंगलवार, 10 जून 2025

सिर पर घड़े बालटी टंकी [ गीत ]

 255/2025

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सिर पर घड़े  बालटी टंकी रखे

चले जाते दुर्गम पथ पर।


जलाभाव से पीड़ित जनता

जल के बिना न जीवन चलता

करता मानव अति जल दोहन

आप स्वयं अपने को छलता

बूँद -बूँद को तरस रहा है 

किल्लत बढ़ती है सबके घर।


बच्चे माँ का हाथ थाम कर

जल आशय के निकट जा रहे

पहने पगतल में पदचल वे

पथरीले पथ उन्हें  भा रहे

मजबूरी क्या कुछ न कराए

बालक बूढ़े बहु  नारी नर।


मिले जहाँ भी पानी किंचित

नदिया ताल पोखरे कोई

भटक रहे हैं वे वन पथ में

आँखें अश्रु भरे हैं रोई

'शुभम्' महत्ता जानो जल की

बूँद-बूँद को भटके दर-दर।


शुभमस्तु !


10.06.2025● 6.15 आ०मा०

                   ●●●

सभी न होते मनुज भले [ गीतिका ]

 254/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सभी   न   होते     मनुज   भले।

भले -  भले    ही    गए    छले।।


फसलें      उगतीं     खेतों     में,

नहीं     उगाते      हैं      गमले।


पत्नी    बैठी       चिंता     लीन,

पति  लौटे    नहिं    साँझ   ढले।


बुरे   कर्म     का       दुष्परिणाम,

कहे      हवन     में     हाथ जले।


भारत    ऐसा      देश      विमूढ़,

आस्तीन      में      साँप     पले।


देशद्रोह        जो        यहाँ    करे,

नहीं      छोड़ना     शेष       गले।


'शुभम्  खून    का    बदला  खून,

कुचलें  अरि    को    पाँव    तले।


शुभमस्तु !


08.06.2025●10.45प0मा0

                    ●●●

फसलें उगतीं खेतों में [ सजल ]

 253/2025

             

समांत        : अले

पदांत         : अपदांत

मात्राभार     : 14

मात्रा पतन    : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सभी   न   होते     मनुज   भले।

भले -  भले    ही    गए    छले।।


फसलें      उगतीं     खेतों     में।

नहीं     उगाते      हैं      गमले।।


पत्नी    बैठी       चिंता     लीन।

पति  लौटे    नहिं    साँझ   ढले।।


बुरे   कर्म     का       दुष्परिणाम।

कहे      हवन     में     हाथ जले।।


भारत    ऐसा      देश      विमूढ़।

आस्तीन      में      साँप     पले।।


देशद्रोह        जन       यहाँ    करे।

नहीं      छोड़ना     शेष       गले।।


'शुभम्  खून    का    बदला  खून।

कुचलें  अरि    को    पाँव    तले।।


शुभमस्तु !


08.06.2025●10.45प0मा0

                    ●●●

पर्यावरण की चिंता [ अतुकांतिका ]

 252/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगा गालियों का धुँआर

पर्यावरण की चिंता है,

सूख रहे हैं बेचारे 

पेड़ रोपने के लिए

स्वयं काटते-

कटवाते

दूसरों से अपेक्षा है।


पौधा लगाया,

मुस्कराए,

फोटो भी खिंचवाया,

अखबार में छपाया,

पर अगले दिन

बकरी चर गई,

ऐसी ही है आज

पर्यावरण रक्षा ।


पौधा लगाया,

पानी कौन दे?

देखभाल कौन करे?

निराई गुड़ाई

ट्री गार्ड की गड़ाई

कोई और कर ले,

उनका लक्ष्य पूरा हुआ।


उपदेशों का शर्बत

ज्ञान का जलजीरा

हर नुक्कड़ पर तैयार है,

जितना चाहो पीओ

कोई शुल्क नहीं।


तपती हुई जेठ की धरती

वे पौधे रोपे जा रहे हैं

रहें तो रहें

मरें तो मर जाएँ ,

उनका उद्देश्य पूरा हुआ

अखबार में नाम सहित

फोटो भी छप ही गया,

यही देशभक्ति है।


शुभमस्तु !


05.06.2025●1.000प0मा0

                  ●●●

हैं कृतघ्न जो देश के [ दोहा गीतिका]

 251/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हैं कृतघ्न जो देश में,  कभी  न करते   मान।

निष्ठा    श्रद्धा    शून्य  वे, मूढ़  क्रूर नादान।।


एक जाति  या धर्म  के, जासूसी कर  नित्य,

घूमें   पाकिस्तान   में,  छिपा  गूढ़ पहचान।


घर   के  भेदी  देश  को,लूट रहे कुछ   आज,

ज्योति   अँधेरी  हो गई,  दानिश की  दीवान।


पहलगाम     के    रक्त   का, लेना है प्रतिशोध,

चुन-चुन  कर अरि   मारने,सैनिक वीर  महान।


खाते   वे   इस  देश  का, दफ़न इसी  में  रोज,

तिल  भर   निष्ठा   हीन  वे,देशद्रोह की  खान।


अन्न   दवा  सब   मुफ़्त  में, इन्हें चाहिए  मीत,

पर   निष्ठा   के   नाम पर, करें पाक गुणगान।


'शुभम्'  मिलें सौ  योनियाँ,मच्छर वृश्चिक नाग,

कसम   उन्हें   निष्ठा  नहीं, जैसे वायु   अपान।


शुभमस्तु !


04.06.2025●1.30प0मा0

                    ●●●

ज्योति अँधेरी हो गई [सजल]

 250/2025

           

समांत        : आन

पदांत         :अपदांत

मात्राभार     :24    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हैं कृतघ्न जो देश में,  कभी  न करते   मान।

निष्ठा    श्रद्धा    शून्य  वे, मूढ़  क्रूर नादान।।


एक जाति  या धर्म  के, जासूसी कर  नित्य।

घूमें   पाकिस्तान   में,  छिपा  गूढ़ पहचान।।


घर   के  भेदी  देश  को,लूट रहे कुछ   आज।

ज्योति   अँधेरी  हो गई,  दानिश की  दीवान ।।


पहलगाम     के    रक्त   का, लेना है प्रतिशोध।

चुन-चुन  कर अरि   मारने,सैनिक वीर  महान।।


खाते   वे   इस  देश  का, दफ़न इसी  में  रोज।

तिल  भर   निष्ठा   हीन  वे,देशद्रोह की  खान।।


अन्न   दवा  सब   मुफ़्त  में, इन्हें चाहिए  मीत।

पर   निष्ठा   के   नाम पर, करें पाक गुणगान।।


'शुभम्'  मिलें सौ  योनियाँ,मच्छर वृश्चिक नाग।

कसम   उन्हें   निष्ठा  नहीं, जैसे वायु   अपान।।


शुभमस्तु !


04.06.2025●1.30प0मा0

                    ●●●

बुधवार, 4 जून 2025

दुनिया से क्यों मोह लगाऊँ [ नवगीत ]

 249/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी -कभी  लगता है मुझको

दुनिया से क्यों मोह लगाऊँ!


शांति   सभी   को प्रिय लगती है

कौन शांत है मुझे बताओ

खटे हुए सब दिवस निशा भर

सच क्या है सच-सच समझाओ

बैठूँ बंद करूँ दरवाजे

और खिड़कियाँ भी उढ़काऊँ।


सब अपने हित जिए जा रहे

कौन स्वार्थ से परे आदमी

मिलती खुशी कष्ट देने में

अपना सुख ही हुआ लाजमी

सौ - सौ काम करो उनके तो

एक न करूँ नहीं मैं भाऊँ।


बेटा  नहीं  पिता को पूछे

पत्नी नहीं चाहती पति को

धन पैसे की डोर बँधी है

प्रेयसि चाहे धन की रति को

ताबीजों में नुचती दाढ़ी

और नहीं अब मैं नुचवाऊँ।


मीठे बोल बोलकर सारे

अपना काम निकाल रहे हैं

समझ रहे हैं सबको पागल

नेहिल डोरे  डाल रहे हैं

झूठे सब सम्बंध जगत के

एकल रहूँ सर्व सुख पाऊँ।


 मानो या मत मानो मेरी

उपदेशक मैं  नहीं तुम्हारा

अपनी तो छोटी -सी दुनिया

हम न किसी के कौन हमारा

'शुभम्' ईश ही अपना है बस

गीत श्याम - राधा के गाऊँ।


शुभमस्तु !


04.06.2025● 11.15 आ0मा0

                   ●●●

बजी कुंज में वंशिका [ दोहा ]

 248/2025

         

[झरना,मधुकर,वंशिका,आँसू,कुटीर]


                  सब में एक

झरना    हरसिंगार     का,  देता  उर    आनंद।

छंद    सवैया   काव्य  में,  बहा   रहा   मकरंद।।

झरता झरना   शृंग  से,झर-झर- झर  सह वेग।

जीव - जंतु   वन मौन  हो,प्राप्त करें  ज्यों  नेग।।


मैं मधुकर  तुम  फूल  हो,करता मधुरस  पान।

प्रेमिल  जीवन   रागिनी, करती नव रस दान।।

अमराई    में    गूँजता , कोकिल  राग   वसंत।

मधुकर   चूमें  बौर  को,छुए न कण भर  दंत।।


बजी   कुंज    में वंशिका,  आए गोपी  ग्वाल।

रास      रचाया   नाचते,  करते  धूम धमाल।।

हरे  बाँस की  वंशिका,श्याम अधर की  शान।

रूठ गई  हैं  राधिका,  करें  कृष्ण  से   मान।।


नयनों   में  आँसू  नहीं, भरो प्राण की प्राण।

मृगनयनी   गजगामिनी, आजीवन दूँ   त्राण।।

आँसू  ढुलका  नैन से,क्या न गज़ब  हो  मीत।

पौरुष  पिघले  मोम-सा, चले  नारि विपरीत।।


रहते    कुंज   कुटीर   में,  लिए संत   संन्यास।

प्रवचन का  रस  बाँटते,जीवन हित मधु श्वास।।

जो  सुख शांत कुटीर में, मिले न महलों  बीच।

मन में   यदि  संतोष हो,   रहता   नेह   नगीच।।


                एक में सब

बजी वंशिका   कुंज में,   झरना झरे    सवेग।

आँसू  नहीं   कुटीर में, मधुकर   लूटें   नेग।।


शुभमस्तु !


04.06.2025●6.45 आ०मा०

                     ●●●

फटीं बिवाई धरती माँ की [ गीत ]

 247/2025 

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फटीं बिवाई धरती माँ की

गिरी न जल की बूँद।


चिंतातुर   बैठा खेतों में

निर्धन एक किसान

दूर-दूर तक फटी धरा ये

पड़ते  शुष्क निशान

देख दशा कृषि की बेचारा

कैसे ले दृग मूँद?


तन पर वसन नहीं ढँकने को

दिखें पसलियाँ दीन

बस धोती ही एक पुरानी

ढँकती अंग मलीन

पल्लव बिना पेड़ हैं रूखे

आम बेल अमरूद।


सोच रहा मन में बेचारा

मेरा क्रूर भविष्य

दिखलाएगा अब दिन कैसे

सब हो गया हविष्य

है अकाल का समय भयंकर

भाग्य दिया है खूँद।


शुभमस्तु!


03.06.2025●7.15आ०मा०

                   ●●●

झोंक दिया है भारत रण में [ गीतिका ]

 246/2025



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


झोंक   दिया   है   भारत    रण   में।

मारेंगे  उस    अरि   को    क्षण  में।।


धर्म     पूछकर    हनता   जन   को,

धर्म   बता हम    मारें      प्रण   में।


क्यों   भूलेंगे      पहलगाम      हम,

चर्चा     यही     रहे   जनगण    में।


अणुबम     की    धमकी   देता   है,

पाक     मिला   देंगे  रज  कण  में।


आँख दिखा   मत   धमकी   मत दे,

दाँव   लगा   दें    तुझको  पण  में।


नहीं   बाप    को   बाप   समझता,

नहीं     बचेगा      बम - वर्षण  में।


'शुभम्'      कटोरा    खाली    तेरा,

झाँक    चेहरा  निज   दर्पण    में।


शुभमस्तु !


02.06.2025●9.00 आ०मा०

                  ●●●

धर्म पूछकर हनता जन को [सजल]

 245/2025

  

समांत         : अण

पदांत          : में

मात्राभार      :16

मात्रा पतन    :शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


झोंक   दिया   है   भारत    रण   में।

मारेंगे  उस    अरि   को    क्षण  में।।


धर्म     पूछकर    हनता   जन   को।

धर्म   बता हम    मारें      प्रण   में।।


क्यों   भूलेंगे      पहलगाम      हम।

चर्चा     यही     रहे   जनगण    में।।


अणुबम     की    धमकी   देता   है।

पाक     मिला   देंगे  रज  कण  में।।


आँख दिखा   मत   धमकी   मत दे।

दाँव   लगा   दें    तुझको  पण  में।।


नहीं   बाप    को   बाप   समझता।

नहीं     बचेगा      बम - वर्षण  में।।


'शुभम्'      कटोरा    खाली    तेरा।

झाँक    चेहरा  निज   दर्पण    में।।


शुभमस्तु !


02.06.2025●9.00 आ०मा०

                  ●●●

246/2025

  झोंक दिया है भारत रण में

                 [ गीतिका ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


झोंक   दिया   है   भारत    रण   में।

मारेंगे  उस    अरि   को    क्षण  में।।


धर्म     पूछकर    हनता   जन   को,

धर्म   बता हम    मारें      प्रण   में।


क्यों   भूलेंगे      पहलगाम      हम,

चर्चा     यही     रहे   जनगण    में।


अणुबम     की    धमकी   देता   है,

पाक     मिला   देंगे  रज  कण  में।


आँख दिखा   मत   धमकी   मत दे,

दाँव   लगा   दें    तुझको  पण  में।


नहीं   बाप    को   बाप   समझता,

नहीं     बचेगा      बम - वर्षण  में।


'शुभम्'      कटोरा    खाली    तेरा,

झाँक    चेहरा  निज   दर्पण    में।


शुभमस्तु !


02.06.2025●9.00 आ०मा०

                  ●●●

247/2025 

      फटीं बिवाई धरती माँ की

                     [ गीत ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फटीं बिवाई धरती माँ की

गिरी न जल की बूँद।


चिंतातुर   बैठा खेतों में

निर्धन एक किसान

दूर-दूर तक फटी धरा ये

पड़ते  शुष्क निशान

देख दशा कृषि की बेचारा

कैसे ले दृग मूँद?


तन पर वसन नहीं ढँकने को

दिखें पसलियाँ दीन

बस धोती ही एक पुरानी

ढँकती अंग मलीन

पल्लव बिना पेड़ हैं रूखे

आम बेल अमरूद।


सोच रहा मन में बेचारा

मेरा क्रूर भविष्य

दिखलाएगा अब दिन कैसे

सब हो गया हविष्य

है अकाल का समय भयंकर

भाग्य दिया है खूँद।


शुभमस्तु!


03.06.2025●7.15आ०मा०

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248/2025

          बजी कुंज में वंशिका

                       [ दोहा ]

[झरना,मधुकर,वंशिका,आँसू,कुटीर]


                  सब में एक

झरना    हरसिंगार     का,  देता  उर    आनंद।

छंद    सवैया   काव्य  में,  बहा   रहा   मकरंद।।

झरता झरना   शृंग  से,झर-झर- झर  सह वेग।

जीव - जंतु   वन मौन  हो,प्राप्त करें  ज्यों  नेग।।


मैं मधुकर  तुम  फूल  हो,करता मधुरस  पान।

प्रेमिल  जीवन   रागिनी, करती नव रस दान।।

अमराई    में    गूँजता , कोकिल  राग   वसंत।

मधुकर   चूमें  बौर  को,छुए न कण भर  दंत।।


बजी   कुंज    में वंशिका,  आए गोपी  ग्वाल।

रास      रचाया   नाचते,  करते  धूम धमाल।।

हरे  बाँस की  वंशिका,श्याम अधर की  शान।

रूठ गई  हैं  राधिका,  करें  कृष्ण  से   मान।।


नयनों   में  आँसू  नहीं, भरो प्राण की प्राण।

मृगनयनी   गजगामिनी, आजीवन दूँ   त्राण।।

आँसू  ढुलका  नैन से,क्या न गज़ब  हो  मीत।

पौरुष  पिघले  मोम-सा, चले  नारि विपरीत।।


रहते    कुंज   कुटीर   में,  लिए संत   संन्यास।

प्रवचन का  रस  बाँटते,जीवन हित मधु श्वास।।

जो  सुख शांत कुटीर में, मिले न महलों  बीच।

मन में   यदि  संतोष हो,   रहता   नेह   नगीच।।


                एक में सब

बजी वंशिका   कुंज में,   झरना झरे    सवेग।

आँसू  नहीं   कुटीर में, मधुकर   लूटें   नेग।।


शुभमस्तु !


04.06.2025●6.45 आ०मा०

                     ●●●

249/2025

     दुनिया से क्यों मोह लगाऊँ

                      [ नवगीत ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी -कभी  लगता है मुझको

दुनिया से क्यों मोह लगाऊँ!


शांति   सभी   को प्रिय लगती है

कौन शांत है मुझे बताओ

खटे हुए सब दिवस निशा भर

सच क्या है सच-सच समझाओ

बैठूँ बंद करूँ दरवाजे

और खिड़कियाँ भी उढ़काऊँ।


सब अपने हित जिए जा रहे

कौन स्वार्थ से परे आदमी

मिलती खुशी कष्ट देने में

अपना सुख ही हुआ लाजमी

सौ - सौ काम करो उनके तो

एक न करूँ नहीं मैं भाऊँ।


बेटा  नहीं  पिता को पूछे

पत्नी नहीं चाहती पति को

धन पैसे की डोर बँधी है

प्रेयसि चाहे धन की रति को

ताबीजों में नुचती दाढ़ी

और नहीं अब मैं नुचवाऊँ।


मीठे बोल बोलकर सारे

अपना काम निकाल रहे हैं

समझ रहे हैं सबको पागल

नेहिल डोरे  डाल रहे हैं

झूठे सब सम्बंध जगत के

एकल रहूँ सर्व सुख पाऊँ।


 मानो या मत मानो मेरी

उपदेशक मैं  नहीं तुम्हारा

अपनी तो छोटी -सी दुनिया

हम न किसी के कौन हमारा

'शुभम्' ईश ही अपना है बस

गीत श्याम - राधा के गाऊँ।


शुभमस्तु !


04.06.2025● 11.15 आ0मा0

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रविवार, 1 जून 2025

चर्चा : चुन्नट-चरित्र [ व्यंग्य ]

 244/2025



©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 भगवान से लेकर इंसान तक सबको चुन्नटों से प्यार है।इसीलिए मानव मात्र ही नहीं सभी जीव जंतुओं में चुन्नटों की भरमार है।जब चुन्नट-चर्चा चली है तो उसकी भी अपनी निर्धारित गली है।इन चुन्नटों को व्यर्थ की चीज मत समझ लीजिए। ये बड़े काम की चीज हैं।हम और आपसे ज्यादा दूर भी नहीं;यहीं कहीं नगीच हैं। क्षमा कीजिए , यह तो बताकर नहीं दूँगा कि ये कहाँ -कहाँ हैं।बड़े ही काम की हैं ,जहाँ -जहाँ हैं। 

 ये प्राकृतिक भी हैं और कृत्रिम भी।प्रकृति की बनाई चीजों और जीव जंतुओं की देह में इनका महहत्वपूर्ण स्थान है।ये चुन्नटें दृश्य हों अथवा अदृश्य ;किंतु रात-दिन अपने काम में कोई शिथिलता नहीं लातीं। आदमी -औरत की लज्जावत कदापि नहीं शरमातीं।जब इन्हें जो कुछ करना होता है,बखूबी करती हैं और अपना काम करने के बाद पुनः पूर्ववत सिमटती हैं।चुन्नटों का अपना ही चमत्कार है।जिसे चुन्नट - चमत्कार के नाम से अभिहित किया जाता है। यह मनुष्य जीवन तो चुन्नट -चमत्कार से चमत्कृत ही हो रहा है।परमात्मा की चुन्नट -प्रणाली से चमत्कृत होकर उसने अपने दैनिक जीवन में पहने जाने वाले अपने वस्त्रों में चुन्नट -चमत्कार को अंगीकार किया है। साड़ी,ब्लाउज, लहँगा,चुनरी,बुर्का,पेटीकोट आदि सभी में चुन्नट- चमत्कार की बहार है।कली भी फूल बनने से पहले चुन्नटों में सिमटी हुई रहती है।ज्यों -ज्यों उसका विकास होता है,उसकी चुन्नटें खुलती जाती हैं और वह महकते दहकते फूल में तब्दील होती चली जाती है। 

 चुन्नटों की चारुता चिंतना की चीज है। जैसे माँ की कुक्षि में छिपा हुआ बीज है।अपनी सोच के पन्ने उधेड़ने होते हैं, तभी चुन्नट -चमत्कार के दिव्य दर्शन होते हैं।सामान्यतः चुन्नट बड़ी शर्मीली - सी चीज है।कभी खुलकर सामने न आने का उनका स्वभाव है।एक से एक सटकर आलिंगित होना उनका चाव है। एक छोटा - सा शब्द ,एक प्यारा -सा शब्द, रहता हुआ सदा निःशब्द : चुन्नट।जैसे घूँघट ने अपना घूँघट नहीं उठाया ,वैसे चुन्नट ने भी नहीं चुनमुनाया। वह शांत है,कांत है और अनेकांत है।चुन्नटें एकता और संगठन की मिसाल हैं। वे स्पष्टवादी हैं,बेमिसाल हैं।

 चुन्नट -चरित्र की एक बड़ी दुनिया है।उसने अपनी दुनिया से बाहर आकर झाँकने का कभी प्रयास किया हो,ऐसा इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं मिलता।वह तो इस अकिंचन की सूक्ष्म दृष्टि में चुन्नट दिख गई और माता शारदा की करबद्ध लेखनी बहुत कुछ लिख गई।मेरी अपनी दृष्टि में चुन्नट के लिए 'चुन्नट' से श्रेष्ठ कोई शब्द नहीं है। यों तो उसे सिकुड़न,शिकन, प्लेट ,क्रीज़,प्लेट,रफ़ल आदि अनेक नाम दिए गए हैं ,जो विभिन्न भाषा बोलियों के अनुसार हैं,किन्तु जो बात 'चुन्नट ' में है ;वह कहीं नहीं है। हर चुन्नट की अपनी बुनावट है,अपनी सजावट है और अपनी खिलावट है। चुन्नट में भले ही नट आया है ,किंतु वह नटती नहीं है। वह सटती ही सटती है।न उसमें नाटकीयता है और न नटों का चरित्र। सब कुछ साफ -सुथरा और पवित्र है।जन, जीवन ,जंतु और जगत में दृष्टि घुमाइए तो चुन्नट -चमत्कार और चुन्नट-चरित्र की भरमार पाइए। बस गहराई में उतरते जाने की जरूरत है।उदघाट्न के पर्दे को उठाने से पहले इन्हीं के नीचे ढँकी हुई मूरत है। जानने से पहले शोध करना होगा।तभी चुन्नट-चरित्र का उदघाट्न होगा।

 चुन्नट -चरित्र की दृष्टि से कवियों और नेताओं का चरित्र एक समान प्रतीत होता है।उनके कथ्य और काव्य में चुन्नटों की परत दर परत खुलती जाती हैं और काव्य या नेताजी का भाषण पूरा होता जाता है।यों तो हर व्यक्ति के चरित्र में चुन्नटों की चहल-पहल है,जहां वह बनाता अपने रहस्य के ताजमहल है। यह विस्तार के विपरीत हैं।इनकी कार्य प्रणाली की अपनी एक रीति है।कम से ही काम चलाना इन्हें बखूबी आता है। इन्ही चुन्नटों की तहों में साड़ी का इजारबंद बड़ा इतराता है। और नारी के पहनावे का गज़ब ढाता है। चुन्नट के कट और तट सभी अर्थपूर्ण हैं।चुन्नट खुली कि सब चूर्ण -विचूर्ण हैं। चुन्नट की चहलकदमी देखिए और चुन्नट को पहचानिए।इसे कोई लज्जाप्रद चीज मत जानिए। 

 शुभमस्तु ! 

 31.05.3025●11.30आ०मा० 

 ●●●

नाग करें खिलवाड़ [ नवगीत ]

 243/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आस्तीन में छिपे  हुए जो

नाग करें खिलवाड़।


'ज्योति'  अँधेरा लेकर आई

चीन पाक  में ऐश

सिंगापुर या अरब देश में

करे  इश्क  अतिलेश

दानिश को दिल दान कर दिया 

ढूँढ़ रही है आड़।


हिंदू ही हिंदू का दुश्मन

भले जले ये देश

सोना यार मिले धन दौलत

महकें इनके केश

झोंक दिया है हिंद देश ये

धधक रहा है भाड़।


देशद्रोहियों को कर बाहर

करना है खुशहाल

रक्त बहाते सैनिक अपने

इधर चमकते गाल

गिन-गिन कर इनको न छोड़ना

देना  पूर्ण उजाड़।


शुभमस्तु !


28.05.2025● 12.30 प०मा०

                    ●●●

ज्वाला तप्त निदाघ की [दोहा]

 242/2025

     

[नौतपा,लूक,ज्वाला,धरा,ताप]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक

यौवन   को  मत  जानिए, जीवन का  मधुमास।

समझ नौतपा ही जिएँ,सँभल-सँभल लें श्वास।।

नौ  दिन  तपता नौतपा, सौ दिन शुभ बरसात।

इंगित  है  भवितव्य  का ,फैले  भानु - बिसात।।


जेठ  मास  तपने  लगा, चलें लूक  अति  तप्त।

लगता जीवन जंतु को,समय हुआ अभिशप्त।।

लिए   लूक  दिनकर  चले,अपने कर  में   थाम।

लगता  खग  मृग  जंतु को,  समय हुआ है वाम।।


ज्वाला तप्त  निदाघ की, असहनीय दिन-रात।

लगता     सूरज    देवता, लगा   रहे  हैं   घात।।

अवनी   है   सदृश  तवा, ज्वाला की  बरसात।

नित  अंबर   से  हो   रही,भानु लगाए   घात।।


सूख   गए   तालाब  भी,क्षीण नदी की    धार।

धरा - अधर   सूखे  हुए, मछली मरीं   हजार।।

धरा   धाम    में  जीव ये, करता कर्म   अनेक।

जैसी  जिसकी  बुद्धि  है,जैसा   जगे  विवेक।।


पंच    तत्त्व    में ताप का,अपना एक  महत्त्व।

क्षिति जल गगन समीर भी,बाँट रहे निज सत्त्व।।

ताप - तेज   से  देह  में, पाचन  हो   दिन - रात।

सूरज   के   अस्तित्त्व  से, जग में संध्या-प्रात।।


                   एक में सब

तपें   नौतपा   जेठ   में,बढ़े  धरा   का   ताप।

लिए लूक रवि चल दिए, ज्वाला की क्या माप!!


शुभमस्तु !


28.05.2025●5.00आ०मा०

हरियाली का सागर उमड़ा [ गीत ]

 241/2025


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हरियाली का सागर उमड़ा

वट का वृक्ष विशाल।


दूर-दूर तक धान झूमते

अंक छिपाए गेह

एक बूँद छूती न धरा को

बरस पड़े यदि मेह

शांति सौख्य का आश्रय नीले

नभ को देता ताल।


कितने जीव-जंतु पशु-पक्षी

तरुवर तर आनंद

चह-चह चहक रहीं हैं चिड़ियाँ

बहे पवन मकरंद

लगता कभी अर्द्ध गोलाकृति

ललना का यह गाल।


पथिक ठहर जाता पल दो पल

मिले उसे सुख शांति

कुदरत का बन चमत्कार वट

रखे न किंचित भ्रांति

पादप सघन सुशोभित अरबों

गुँथी परस्पर डाल।


शुभमस्तु!


27.05.2025●9.45आ०मा०

                    ●●●

9:49 am


नेता खड़े तानकर छाते [ गीतिका ]

 240/2025

   


©शब्दकार

©डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मिल   जाते    हैं      आते - जाते।

मनुज सभी   हमको  न   सुहाते।।


नाग - नेवला   सब   ही   मिलते,

अत्याचार   मनुज    पर    ढाते।


पहलगाम  भी    देख   लिया   है,

दनुज    वहाँ     गोली   बरसाते।


बड़े  भाग्यशाली    हैं    वे   जन,

बीते       जीवन     गाते - गाते।


पता   नहीं  है    दशा    देश  की,

धूनी   में    निज   ध्यान   रमाते।


मद  में  चूर  पड़े   हैं   कुछ   तो,

जिन्हें  न   भारतवासी     भाते।


'शुभम्'  रसातल    में   है भारत,

नेता     खड़े    तानकर     छाते।


शुभमस्तु!


26.05.2025●5.00आ०मा०

                  ●●●

5:16 am


नाग-नेवला सब ही मिलते [ सजल ]

 239/2025

      

समांत        : आते

पदांत         : अपदांत

मात्राभार     :16

मात्रा पतन   :शून्य


©शब्दकार

©डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मिल   जाते    हैं      आते - जाते।

मनुज सभी   हमको  न   सुहाते।।


नाग - नेवला   सब   ही   मिलते।

अत्याचार   मनुज    पर    ढाते।।


पहलगाम  भी    देख   लिया   है।

दनुज    वहाँ     गोली   बरसाते।।


बड़े  भाग्यशाली    हैं    वे   जन।

बीते       जीवन     गाते - गाते।।


पता   नहीं  है    दशा    देश  की।

धूनी   में    निज   ध्यान   रमाते।।


मद  में  चूर  पड़े   हैं   कुछ   तो।

जिन्हें  न   भारतवासी     भाते।।


'शुभम्'  रसातल    में   है भारत।

नेता     खड़े    तानकर     छाते।।


शुभमस्तु!


26.05.2025●5.00आ

खेत' [ व्यंग्य ]

 238/2025

                     

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी एक 'खेत' है। आदमजात मात्र 'खेत' है। यह आदमी या आदमजात आम भी है और आमों में सरनाम भी है। खास भी 'खेत' ही हैं।इस प्रकार हर आम और खास 'खेत' के रेत हैं।वे अकेले अथवा समवेत हैं;किन्तु सभी 'खेत' हैं। खेत के विषय में भला कौन नहीं जानता कि खेत में क्या होता है! किसी भी खेत में भरपूर फसलों का उत्पादन होता है तो किसी में मकान ,सड़कें, स्कूल, कालेज,यूनिवर्सिटी,नगर,गाँव, कल,कारखाने आदि  बनाए जा सकते हैं।

             दुनिया भर के 'खेतों' का विचित्र संसार है।उनमें नित्य नए - नए उत्पादन हो रहे हैं।बीज डाले जा रहे हैं,उ238/2025 'खेत' [ व्यंग्य ] ©व्यंग्यकार डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' आदमी एक 'खेत' है। आदमजात मात्र 'खेत' है। यह आदमी या आदमजात आम भी है और आमों में सरनाम भी है। खास भी 'खेत' ही हैं।इस प्रकार हर आम और खास 'खेत' के रेत हैं।वे अकेले अथवा समवेत हैं;किन्तु सभी 'खेत' हैं। खेत के विषय में भला कौन नहीं जानता कि खेत में क्या होता है! किसी भी खेत में भरपूर फसलों का उत्पादन होता है तो किसी में मकान ,सड़कें, स्कूल, कालेज,यूनिवर्सिटी,नगर,गाँव, कल,कारखाने आदि बनाए जा सकते हैं। दुनिया भर के 'खेतों' का विचित्र संसार है।उनमें नित्य नए - नए उत्पादन हो रहे हैं।बीज डाले जा रहे हैं,उग रहे हैं, फसलें लहलहा रही हैं। प्रत्येक 'खेत' आबाद है। दुनिया की सारी लड़ाइयों की जड़ में तीन चीजें प्रमुख हैं।इन तीनों को सभी आदमजात अच्छी तरह जानते -पहचानते हैं।ये तीनों चीजें जर ,जोरू और जमीन के नाम से जानी जाती हैं। 'जर' या 'जड़' किसी भी स्थिर सम्पदा के लिए आ सकता है।जिसमें सोना,चाँदी, धन-दौलत, घर,मकान आदि कुछ भी आता है। दूसरा स्थान 'काम' का है ;जिसकी पूर्ति 'जोरू' अर्थात स्त्री करती है। समस्त भौतिक सुख -साधनों से सम्पन्न होने के बाद आदमी को काम और कामना की पूर्ति के लिए 'जोरू' चाहिए,जिसके लिए विवाह जैसी सामाजिक और प्रदर्शन प्रधान संस्था का आविर्भाव आदमी कर ही चुका है।जो विभिन्न धर्मों और मजहब के अनुसार अनेक नामों से संबोधित और बहुविधियों से संपादित की जाती है। जिसके लिए आठ प्रकार की विवाह पद्धतियाँ ईजाद कर ली गईं,जिनमें अपहरण और बलात या अबलात (स -प्रेम) शादियाँ सम्पन्न कर ली जा रही हैं।

   मानवीय लड़ाइयों की अंतिम और प्रमुख वस्तु 'जमीन' है,जिसे 'खेत' के नाम से भी जाना-पहचाना जाता है। सारी दुनिया के आदमजात इन 'खेतों' के दीवाने हैं। इन खेतों में आदमी स्वयं सबसे बड़ा 'खेत' है। जिनमें विभिन्न फसलों की तरह उनके 'चरित्र' लहलहा रहे हैं। चरित्र ही फल -फूल रहे हैं। चूँकि फसलों की भरमार है,इसलिए हम लिखैयों के लिए विषयों का कोई अकाल पड़ने वाला नहीं है।नित्य नए पेड़ -पौधे ,घास -फूस, की तरह जंगल में मंगल हो रहा है। हाँ,आवश्यकता इस बात की है कि कवि या लेखक की शोधी दृष्टि होनी चाहिए ,जो कहीं किसी कोने या अँधेरे में छिपे हुए विषय को खोज कर उस पर अपनी लेखनी आ-जमा सके, और लेखन में नाम कमा सके।यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ विषय ही विषय रेत के कणों की तरह बिखरे पड़े हैं।बस बालू में से 'सोने के कण' खोजने की आवश्यकता है।बात अपनी -अपनी दृष्टि की है कि किसकी दृष्टि अपनी दूरबीन से कहाँ तक देख पाती है ! और नित्य नए सहित्य को जन्म दे पाती है। 

   कोई साहित्यकार वस्तुतः एक माँ है ; साहित्य प्रसविनी माँ।जब उसके मन रूपी खेत में विचार अथवा भाव का बीजारोपण और उसका अंकुरण होता है ;वही बड़ा होकर एक महान रचना बन जाती है।वह गद्य या पद्य,कविता,कहानी, उपन्यास,लघुकथा,निबंध, शोधपत्र, आलेख,व्यंग्य,संस्मरण,जीवनी, आत्मकथा कुछ भी हो सकता है। जिस प्रकार किसी पौधे के पनपने के लिए उचित हवा,पानी,प्रकाश और वातावरण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार किसी भाव या विचार-बीज के अंकुरण के बाद उसे विविध चरित्रों की हवा,पानी और खाद्य पोषण समाज रूपी खेत से ही मिलता है।जब तक मानव समाज रहेगा,ये 'खेत' सूखेंगे नहीं। साहित्य की फसलें लहलहाती रहेंगीं। बस कोई खेत बंजर नहीं रहना चाहिए।

 शुभमस्तु ! 

 23.05.2025● 5.30आ०मा०

 ●●●

शिक्षा-माफिया' [अतुकांतिका]

 237/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


क्या कुछ नहीं

हमारे शिक्षालय में

किताबें कॉपियाँ

पैंन पेंसिल पटरी

यहाँ तक कि

जूते मोजे और कपड़े भी

मिल जाते हैं,

शर्त बस इतनी है कि

सब कुछ एक ही

छत के नीचे हाजिर है,

कहीं बाहर जाने की

आवश्यकता नहीं है,

जहाँ तक 

पढ़ाई - लिखाई की बात है

उसके ट्यूटर की

बढ़िया व्यवस्था है,

बस यदि यहाँ कुछ नहीं है

तो वह एक ही चीज है

जिसे कहते हैं शिक्षा।


हमारे शिक्षालय का बड़ा 

नाम है अखबारों में 

शत -प्रतिशत अंक लाते हैं,

अब आपसे क्या छिपाना

कि हमारे टीचर 

परीक्षा में पूरे  'मददगार'  हैं,

सभी प्रश्नों के सही-सही

उत्तर लिखवाते हैं,

इसीलिए तो हम 

विद्यालय के रिजल्ट पर

मूँछें तानकर इतराते हैं।


हम कोई ठेकेदार नहीं 

किसी को शिक्षित बनाने के

हम तो 'शिक्षा माफिया' हैं

धंधेखोर हैं,

पैसा कमाना हमारा लक्ष्य है

किसी के चरित्र और शिक्षा से

हमें क्या लेना -देना,

पैसा लाओ और अंक पाओ

हम कोई समाज सुधारक भी नहीं

भाड़ में जाए समाज और देश ,

हमें तो बस पैसा कमाना है

देश के नेताओं की भावना का

हम पूरा सम्मान करते हैं,

वे भी तो नहीं चाहते

कि देश के नागरिक योग्य बनें

बस वोट डालें और

हमारी कुर्सी बहाल रखें।


देश सोता रहे 

इसी में हम नेताओं और

शिक्षा माफियाओं की भलाई है,

यदि देश जाग गया

पढ़ - लिख कर योग्य बन गया

तो हम नेताओं और धनाधीशों को

भला पूछेगा  कौन ?

ये पढ़े-लिखें अनपढ़ ही तो

हमारी ताकत हैं,

जो 100 में 100 अंक पाते हैं

और कम्पटीशन में

मुँह की खाते हैं,

पीठ के बल पड़े नजर आते हैं।


शुभमस्तु !


22.05.2025 ● 9.00प०मा०

                      ●●●

जल जीवन का प्राण [ दोहा ]

 236/2025

            

[ जल,नदी,तालाब,तृषित,मानसून]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

      

                  सब में एक

जल  जीवन का प्राण है,पंच तत्त्व   में एक।

जीवन हो या  सृष्टि  में,जल ही बुद्धि विवेक।।

जेठ  मास  में  भानु  का,बढ़ता  तेज  प्रताप।

जल  के  प्यासे जीव हैं,करें कीर खग जाप।।


नदी दे  रही  नित्य  ही,फिर भी नदिया नाम।

छपवाते अखबार में, लोग  नाम बिन काम।।

गंगा यमुना  नित्य बह,  करतीं जग कल्याण।

नदी नहाएँ   जीव  जड़, बचा रहीं  हैं  प्राण।।


सूख   गए तालाब  भी,सरि की पतली धार।

जेठ  मास  तपने  लगा,  वर्षा  का उपहार।।

मेढक मछली जंतु जल,व्याकुल हैं दिन-रात।

विवश   सभी तालाब हैं,बिना हुए  बरसात।।


तृषित चिरैया डाल पर,मिली न जल की बूँद।

चोंच उठा कर शून्य में,भजती प्रभु दृग मूँद।।

तृषित जीव की प्यास को,करता है जो तृप्त।

पुण्य भाग मिलता उसे, जीव  जंतु संतप्त।।


मानसून  आए  नहीं, गिरी न नभ  से   बूँद।

राम-राम जन जप रहे,तृषित नयन को मूँद।।

अभी    नौतपा     दूर हैं,  तपने  को भरपूर।

चरम   ग्रीष्म  के   ताप से,मानसून है   दूर।।


                 एक में सब

मानसून   आए     नहीं,    शुष्क नदी    तालाब।

तृषित बिना जल- बिंदु के, उतर गई मुख-आब।।


शुभमस्तु!


21.05.2025● 6.30आ०मा०

                     ●●●

6:41 am

22/5/2025

हे बालक! रसलीन [ गीत ]

 235/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नंगे पाँव किधर जाते हो

हे बालक! रसलीन।


तन पर मैले फटे वसन धर

बिखरे सिर के बाल

झोला एक पीठ पर टाँगे

हृदय रहा है साल

दुर्दिन के झटकों ने तेरा

चैन लिया है छीन।


तुम्हें जरूरत थी बस्ते की

कागज कलम दवात

लगता कचरा बीन रहे हो

यही मिली सौगात ?

मात-पिता का नेह नहीं है

बने हुए हो दीन।


'शुभम्' देश के कर्णधार तुम

तुम ही अटल भविष्य

यज्ञ पूर्ण करना है तुमको

दाता  तुम्हीं हविष्य

आओ चलो चलें विद्यालय

शिक्षा में हो लीन।


शुभमस्तु!


20.05.2025●9.30आ०मा०

                  ●●●

न हो परस्पर कटे कटे [गीतिका ]

 234/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


न   हो   परस्पर    कटे -  कटे।

बिना    संगठन     रहो    घटे।।


मेल   एकता     प्रिय    संवाद,

सिखलाते  सत  से    न   हटे।


विमुख  सनातन   से   मत  हो,

उचित  नहीं  है    मनुज    बटे।


करनी  पर     ही    देना  ध्यान,

रहो    सभी     नर   साथ  सटे।


दृढ़      संकल्प    रहे    मन   में,

चमको   जग  में     छटे -  छटे।


कथनी     करनी    एक      रहें,

पल को भी    मन   क्यों  उचटे ।


'शुभम्'   अहं   का    त्याग करें,

रहो    सत्य      पर   सदा   डटे।


शुभमस्तु !


19.05.2025● 5.15आ०मा०

                   ●●●

सत्य पर रहें डटे [सजल ]

 233/2025

             

समांत        : अटे

पदांत         :अपदांत

मात्राभार     :14

मात्रा पतन   :शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


न   हो   परस्पर    कटे -  कटे।

बिना    संगठन     रहो    घटे।।


मेल   एकता     प्रिय    संवाद।

सिखलाते  सत  से    न   हटे।।


विमुख  सनातन   से   मत  हो।

उचित  नहीं  है    मनुज    बटे।।


करनी  पर     ही    देना  ध्यान।

रहो    सभी     नर   साथ  सटे।।


दृढ़      संकल्प    रहे    मन   में।

चमको   जग  में     छटे -  छटे।।


कथनी     करनी    एक      रहें।

पल को भी    मन   क्यों  उचटे ।।


'शुभम्'   अहं   का    त्याग करें।

रहो    सत्य      पर   सदा   डटे।।


शुभमस्तु !


19.05.2025● 5.15आ०मा०

                   ●●●

सिद्ध नाम सिद्धार्थ [दोहा ]

 232/2025

          

[अहिंसा,निर्वाण,सिद्धार्थ,तथागत,बुद्ध]


*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्*


               _सब में एक_

दानवता   बढ़ने   लगी, मनुज  हुआ है  क्रूर।

शांति  *अहिंसा*  चाहिए,  तभी दिखेगा   नूर।।

दिया  बुद्ध ने  विश्व  को, एक  अटल  संदेश।

सदा  *अहिंसा*   श्रेष्ठ   है,हटें  नहीं   लवलेश।।


सत्य    धर्म  की   राह पर,चलना है अनिवार्य।

सहज   तभी  *निर्वाण*   है,कर अष्टांग  सुकार्य।।

कठिन  तपस्या   कर्म से,प्राप्त किया  *निर्वाण*।

बुद्ध   तपस्वी  ने  दिए,सुखा  गात निज  प्राण।।


प्रण  हो  यदि *सिद्धार्थ* -सा,नहीं असंभव लक्ष्य।

रहें   सात्वकी  वृत्तियाँ,  खाना   नहीं   अभक्ष्य।।

शुद्धोधन   के  पुत्र  का,  एक   नाम *सिद्धार्थ*।

सही  अर्थ  में  सिद्ध  है, किया जगत-परमार्थ।।


'ऐसा    ही   है  है  वही',   वही *तथागत*   बुद्ध। 

राग  - द्वेष   से  है  परे, नहीं किसी   से   क्रुद्ध।।

लक्ष्य  उच्चतम  प्राप्त  कर, बने *तथागत* बुद्ध।

शांति  अहिंसा  मंत्र से,जन मानस कर   शुद्ध।।


*बुद्ध*   नवम   अवतार     हैं,  धरे तपस्वी   वेश।

राजपाट  गृह   त्यागकर,   दिया अमर   संदेश।।

तन- मन से जो  शुद्ध है,बने सफल  वह  *बुद्ध*।

सत पथ उसका लक्ष्य है,विरत करे जो   युद्ध।।


                       _एक में सब_

*बुद्ध   तथागत*  ने किया,नाम सिद्ध *सिद्धार्थ*।

तप की अपनी शक्ति से,जगती का परमार्थ।।


शुभमस्तु !


14.05.2025●5.15आ०मा०

                     ●●●

नर -नारी वे धन्य हैं [ दोहा गीतिका]

 231/2025

           

*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


नर-नारी  वे  धन्य   हैं, जिएं सहित अनुराग।

आन  मान  सम्मान का,जागे नवल सुहाग।।


जीवन वह जीवन नहीं,बजे फटा ज्यों ढोल,

काँव-काँव   करता  रहे, भरे काँव से   बाग।


मिले   पड़ौसी  ठीक  तो,सोए  चादर   तान,

बुरा  पड़ौसी   यदि   मिले,रहे लगाता  आग।


झूठे     धोखेबाज   की,   संगति   है दुर्भाग्य,

भोला    बने   कपोत-सा, करनी में हैं दाग ।


भारत - पाकिस्तान  का, होगा कभी  न  मेल,

धोखे   में    रहना  नहीं, रहो सदा ही   जाग।


उचित  रहा  प्रतिशोध  ये,  शल्यकर्म  सिंदूर,

धुआँ-धुँआ अब पाक है,फुफकारा जो नाग।


युगल व्योमिका सोफिया,करती रहीं कमाल,

'शुभम्' विश्व  में देश ने, हनन किया दुर  छाग।


शुभमस्तु !


12.05.2025●6.15 आ०मा०

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नर -नारी वे धन्य हैं [ दोहा गीतिका]

 231/2025

       


*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


नर-नारी  वे  धन्य   हैं, जिएं सहित अनुराग।

आन  मान  सम्मान का,जागे नवल सुहाग।।


जीवन वह जीवन नहीं,बजे फटा ज्यों ढोल,

काँव-काँव   करता  रहे, भरे काँव से   बाग।


मिले   पड़ौसी  ठीक  तो,सोए  चादर   तान,

बुरा  पड़ौसी   यदि   मिले,रहे लगाता  आग।


झूठे     धोखेबाज   की,   संगति   है दुर्भाग्य,

भोला    बने   कपोत-सा, करनी में हैं दाग ।


भारत - पाकिस्तान  का, होगा कभी  न  मेल,

धोखे   में    रहना  नहीं, रहो सदा ही   जाग।


उचित  रहा  प्रतिशोध  ये,  शल्यकर्म  सिंदूर,

धुआँ-धुँआ अब पाक है,फुफकारा जो नाग।


युगल व्योमिका सोफिया,करती रहीं कमाल,

'शुभम्' विश्व  में देश ने, हनन किया दुर  छाग।


शुभमस्तु !


12.05.2025●6.15 आ०मा०

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हनन किया दुर छाग [सजल]

 230/2025

           

समांत        :*आग*

पदांत         :अपदांत

मात्राभार     :24.

मात्रा पतन   : शून्य


*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


नर-नारी  वे  धन्य   हैं, जिएं सहित अनुराग।

आन  मान  सम्मान का,जागे नवल सुहाग।।


जीवन वह जीवन नहीं,बजे फटा ज्यों ढोल।

काँव-काँव   करता  रहे, भरे काँव से   बाग।।


मिले   पड़ौसी  ठीक  तो,सोए  चादर   तान।

बुरा  पड़ौसी   यदि   मिले,रहे लगाता  आग।।


झूठे     धोखेबाज   की,   संगति   है दुर्भाग्य।

भोला    बने   कपोत-सा, करनी में हैं दाग ।।


भारत - पाकिस्तान  का, होगा कभी  न  मेल।

धोखे   में    रहना  नहीं, रहो सदा ही   जाग।।


उचित  रहा  प्रतिशोध  ये,  शल्यकर्म  सिंदूर।

धुआँ-धुँआ अब पाक है,फुफकारा जो नाग।।


युगल व्योमिका सोफिया,करती रहीं कमाल।

'शुभम्' विश्व  में देश ने, हनन किया दुर  छाग।।


शुभमस्तु !


12.05.2025●6.15 आ०मा०

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सिंदूर ऑपरेशन [अतुकांतिका]

 229/2025

              

*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


लड़ने का चाव नहीं है हमें

किंतु इतने बुजदिल भी नहीं

कि कोई कमजोर समझ ले

जो छेड़ेगा तो उसे भी छोड़ेंगे नहीं।


माताओं बहनों का जिसने

सिंदूर उजाड़ा है

उनको ही चुन-चुन कर

हमारे सैनिकों ने मारा है।


'सिंदूर ऑपरेशन' 

देख रही है दुनिया

आतंक का परिणाम

धुँआ ही नहीं

आग उगल रहा है।


कर्नल सोफिया कुरैशी

और विंग कमांडर व्योमिका सिंह 

डटी हुई हैं मोर्चे पर 

देश की नारी शक्ति पर

भारतवासियों को गर्व है।


'शठे शाठ्ठयम  समाचरेत'

भूला नहीं है देश

काँटे का इलाज काँटे से

हमें खूब आता है,

झूठ से जो चाहता हमें भरमाना

उसका हुक्का -पानी 

बंद करना ही उपचार है।


शुभमस्तु!


09.05.2025 ●4.15 आ०मा०

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सकल सृष्टि श्रम से सजी [ दोहा ]

 228/2025

     

[श्रम,श्रमिक,मजदूर,पसीना, रोटी]


*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


                 _सब में एक_

सकल सृष्टि *श्रम* से सजी,स्वेद सिक्त संसार।

कर्ता   से  जा   पूछिए, प्रतिमा लाख  हजार।।

*श्रम*  की  रोटी  स्वाद से, भरी  हुई   भरपूर।

भले  अलोनी  ही   मिले, न हो उदर से   दूर।।


बड़े   भवन  अट्टालिका,सड़क दौड़ते  यान।

*श्रमिक* करें कारीगरी,तन- मन का श्रमदान।।

कहलाने  में *श्रमिक* को,लगे न कोई   लाज।

सुंदरता  इस  विश्व की, सभी उसी का काज।।


भले  अलग  हों क्षेत्र यों,किंतु सभी *मजदूर*।

दूर   कहीं  मत  सोचिए, कर्म करें  वे    शूर।।

एक   कमाता   नित्य ही, एक कमाए   मास।

किंतु  सभी *मजदूर*  हैं, जन जीवन  की श्वास।।


बिना *पसीना* चैन   की, वंशी बजे  न  मीत।

है  सुगंध  उसकी  भरी, सृष्टि  उसी का गीत।।

कृषक   बहाए   खेत में,सदा *पसीना*   मित्र।

उससे  ही धन-धान्य है, वही छिड़कता   इत्र।।


गोल-गोल    *रोटी*   बनी, इसके चारों  ओर।

धनिक  और निर्धन सभी,भरते  रहें   हिलोर ।।

*रोटी* ही  खाते  सभी, भरी  स्वर्ण की    खान।

उदर  भरें  दो  रोटियाँ, व्यर्थ सभी धन - धान।।


                   _एक में सब_

*श्रमिक*  श्रांत  *मजदूर* का,बने *पसीना* इत्र।

*श्रम* की *रोटी* मधुर हो,उज्ज्वल  बने चरित्र।।


शुभमस्तु!


07.05.2025●3.00आ०मा० (रात्रि)

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जिंदगी के रंगों का मेला [ गीत ]

 227/2025

   

*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


शादी ब्याह बरात 

जिंदगी के रंगों का मेला।


दिन के बाद रात आती है

सुबह हो रही साँझ

कभी रंग हैं रंग - रंग के

कभी बजे शुभ झाँझ

कभी नाचता कभी कूदता

कभी खेल तू खेला।


नहीं सभी दिन हुए बराबर

मत रँग रस में भूल

कभी महकते पाटल के दल

काँटा कभी बबूल

तट पर बैठ देखता लहरें

कभी सुनामी रेला।


सूरज चढ़ता कभी शून्य में

वही साँझ को ढलता

रात अँधेरी  बिता असूझी

प्रातः वही निकलता

धूमधाम कुछ पल की बन्दे

सबने इसको झेला।


शुभमस्तु !


06.05.2025● 5.45 आरोहणम मार्तण्डस्य

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...