बुधवार, 4 जून 2025

फटीं बिवाई धरती माँ की [ गीत ]

 247/2025 

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फटीं बिवाई धरती माँ की

गिरी न जल की बूँद।


चिंतातुर   बैठा खेतों में

निर्धन एक किसान

दूर-दूर तक फटी धरा ये

पड़ते  शुष्क निशान

देख दशा कृषि की बेचारा

कैसे ले दृग मूँद?


तन पर वसन नहीं ढँकने को

दिखें पसलियाँ दीन

बस धोती ही एक पुरानी

ढँकती अंग मलीन

पल्लव बिना पेड़ हैं रूखे

आम बेल अमरूद।


सोच रहा मन में बेचारा

मेरा क्रूर भविष्य

दिखलाएगा अब दिन कैसे

सब हो गया हविष्य

है अकाल का समय भयंकर

भाग्य दिया है खूँद।


शुभमस्तु!


03.06.2025●7.15आ०मा०

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