249/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कभी -कभी लगता है मुझको
दुनिया से क्यों मोह लगाऊँ!
शांति सभी को प्रिय लगती है
कौन शांत है मुझे बताओ
खटे हुए सब दिवस निशा भर
सच क्या है सच-सच समझाओ
बैठूँ बंद करूँ दरवाजे
और खिड़कियाँ भी उढ़काऊँ।
सब अपने हित जिए जा रहे
कौन स्वार्थ से परे आदमी
मिलती खुशी कष्ट देने में
अपना सुख ही हुआ लाजमी
सौ - सौ काम करो उनके तो
एक न करूँ नहीं मैं भाऊँ।
बेटा नहीं पिता को पूछे
पत्नी नहीं चाहती पति को
धन पैसे की डोर बँधी है
प्रेयसि चाहे धन की रति को
ताबीजों में नुचती दाढ़ी
और नहीं अब मैं नुचवाऊँ।
मीठे बोल बोलकर सारे
अपना काम निकाल रहे हैं
समझ रहे हैं सबको पागल
नेहिल डोरे डाल रहे हैं
झूठे सब सम्बंध जगत के
एकल रहूँ सर्व सुख पाऊँ।
मानो या मत मानो मेरी
उपदेशक मैं नहीं तुम्हारा
अपनी तो छोटी -सी दुनिया
हम न किसी के कौन हमारा
'शुभम्' ईश ही अपना है बस
गीत श्याम - राधा के गाऊँ।
शुभमस्तु !
04.06.2025● 11.15 आ0मा0
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