238/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आदमी एक 'खेत' है। आदमजात मात्र 'खेत' है। यह आदमी या आदमजात आम भी है और आमों में सरनाम भी है। खास भी 'खेत' ही हैं।इस प्रकार हर आम और खास 'खेत' के रेत हैं।वे अकेले अथवा समवेत हैं;किन्तु सभी 'खेत' हैं। खेत के विषय में भला कौन नहीं जानता कि खेत में क्या होता है! किसी भी खेत में भरपूर फसलों का उत्पादन होता है तो किसी में मकान ,सड़कें, स्कूल, कालेज,यूनिवर्सिटी,नगर,गाँव, कल,कारखाने आदि बनाए जा सकते हैं।
दुनिया भर के 'खेतों' का विचित्र संसार है।उनमें नित्य नए - नए उत्पादन हो रहे हैं।बीज डाले जा रहे हैं,उ238/2025 'खेत' [ व्यंग्य ] ©व्यंग्यकार डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' आदमी एक 'खेत' है। आदमजात मात्र 'खेत' है। यह आदमी या आदमजात आम भी है और आमों में सरनाम भी है। खास भी 'खेत' ही हैं।इस प्रकार हर आम और खास 'खेत' के रेत हैं।वे अकेले अथवा समवेत हैं;किन्तु सभी 'खेत' हैं। खेत के विषय में भला कौन नहीं जानता कि खेत में क्या होता है! किसी भी खेत में भरपूर फसलों का उत्पादन होता है तो किसी में मकान ,सड़कें, स्कूल, कालेज,यूनिवर्सिटी,नगर,गाँव, कल,कारखाने आदि बनाए जा सकते हैं। दुनिया भर के 'खेतों' का विचित्र संसार है।उनमें नित्य नए - नए उत्पादन हो रहे हैं।बीज डाले जा रहे हैं,उग रहे हैं, फसलें लहलहा रही हैं। प्रत्येक 'खेत' आबाद है। दुनिया की सारी लड़ाइयों की जड़ में तीन चीजें प्रमुख हैं।इन तीनों को सभी आदमजात अच्छी तरह जानते -पहचानते हैं।ये तीनों चीजें जर ,जोरू और जमीन के नाम से जानी जाती हैं। 'जर' या 'जड़' किसी भी स्थिर सम्पदा के लिए आ सकता है।जिसमें सोना,चाँदी, धन-दौलत, घर,मकान आदि कुछ भी आता है। दूसरा स्थान 'काम' का है ;जिसकी पूर्ति 'जोरू' अर्थात स्त्री करती है। समस्त भौतिक सुख -साधनों से सम्पन्न होने के बाद आदमी को काम और कामना की पूर्ति के लिए 'जोरू' चाहिए,जिसके लिए विवाह जैसी सामाजिक और प्रदर्शन प्रधान संस्था का आविर्भाव आदमी कर ही चुका है।जो विभिन्न धर्मों और मजहब के अनुसार अनेक नामों से संबोधित और बहुविधियों से संपादित की जाती है। जिसके लिए आठ प्रकार की विवाह पद्धतियाँ ईजाद कर ली गईं,जिनमें अपहरण और बलात या अबलात (स -प्रेम) शादियाँ सम्पन्न कर ली जा रही हैं।
मानवीय लड़ाइयों की अंतिम और प्रमुख वस्तु 'जमीन' है,जिसे 'खेत' के नाम से भी जाना-पहचाना जाता है। सारी दुनिया के आदमजात इन 'खेतों' के दीवाने हैं। इन खेतों में आदमी स्वयं सबसे बड़ा 'खेत' है। जिनमें विभिन्न फसलों की तरह उनके 'चरित्र' लहलहा रहे हैं। चरित्र ही फल -फूल रहे हैं। चूँकि फसलों की भरमार है,इसलिए हम लिखैयों के लिए विषयों का कोई अकाल पड़ने वाला नहीं है।नित्य नए पेड़ -पौधे ,घास -फूस, की तरह जंगल में मंगल हो रहा है। हाँ,आवश्यकता इस बात की है कि कवि या लेखक की शोधी दृष्टि होनी चाहिए ,जो कहीं किसी कोने या अँधेरे में छिपे हुए विषय को खोज कर उस पर अपनी लेखनी आ-जमा सके, और लेखन में नाम कमा सके।यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ विषय ही विषय रेत के कणों की तरह बिखरे पड़े हैं।बस बालू में से 'सोने के कण' खोजने की आवश्यकता है।बात अपनी -अपनी दृष्टि की है कि किसकी दृष्टि अपनी दूरबीन से कहाँ तक देख पाती है ! और नित्य नए सहित्य को जन्म दे पाती है।
कोई साहित्यकार वस्तुतः एक माँ है ; साहित्य प्रसविनी माँ।जब उसके मन रूपी खेत में विचार अथवा भाव का बीजारोपण और उसका अंकुरण होता है ;वही बड़ा होकर एक महान रचना बन जाती है।वह गद्य या पद्य,कविता,कहानी, उपन्यास,लघुकथा,निबंध, शोधपत्र, आलेख,व्यंग्य,संस्मरण,जीवनी, आत्मकथा कुछ भी हो सकता है। जिस प्रकार किसी पौधे के पनपने के लिए उचित हवा,पानी,प्रकाश और वातावरण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार किसी भाव या विचार-बीज के अंकुरण के बाद उसे विविध चरित्रों की हवा,पानी और खाद्य पोषण समाज रूपी खेत से ही मिलता है।जब तक मानव समाज रहेगा,ये 'खेत' सूखेंगे नहीं। साहित्य की फसलें लहलहाती रहेंगीं। बस कोई खेत बंजर नहीं रहना चाहिए।
शुभमस्तु !
23.05.2025● 5.30आ०मा०
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