228/2025
[श्रम,श्रमिक,मजदूर,पसीना, रोटी]
*©शब्दकार*
*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*
_सब में एक_
सकल सृष्टि *श्रम* से सजी,स्वेद सिक्त संसार।
कर्ता से जा पूछिए, प्रतिमा लाख हजार।।
*श्रम* की रोटी स्वाद से, भरी हुई भरपूर।
भले अलोनी ही मिले, न हो उदर से दूर।।
बड़े भवन अट्टालिका,सड़क दौड़ते यान।
*श्रमिक* करें कारीगरी,तन- मन का श्रमदान।।
कहलाने में *श्रमिक* को,लगे न कोई लाज।
सुंदरता इस विश्व की, सभी उसी का काज।।
भले अलग हों क्षेत्र यों,किंतु सभी *मजदूर*।
दूर कहीं मत सोचिए, कर्म करें वे शूर।।
एक कमाता नित्य ही, एक कमाए मास।
किंतु सभी *मजदूर* हैं, जन जीवन की श्वास।।
बिना *पसीना* चैन की, वंशी बजे न मीत।
है सुगंध उसकी भरी, सृष्टि उसी का गीत।।
कृषक बहाए खेत में,सदा *पसीना* मित्र।
उससे ही धन-धान्य है, वही छिड़कता इत्र।।
गोल-गोल *रोटी* बनी, इसके चारों ओर।
धनिक और निर्धन सभी,भरते रहें हिलोर ।।
*रोटी* ही खाते सभी, भरी स्वर्ण की खान।
उदर भरें दो रोटियाँ, व्यर्थ सभी धन - धान।।
_एक में सब_
*श्रमिक* श्रांत *मजदूर* का,बने *पसीना* इत्र।
*श्रम* की *रोटी* मधुर हो,उज्ज्वल बने चरित्र।।
शुभमस्तु!
07.05.2025●3.00आ०मा० (रात्रि)
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