रविवार, 1 जून 2025

सकल सृष्टि श्रम से सजी [ दोहा ]

 228/2025

     

[श्रम,श्रमिक,मजदूर,पसीना, रोटी]


*©शब्दकार*

*डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'*


                 _सब में एक_

सकल सृष्टि *श्रम* से सजी,स्वेद सिक्त संसार।

कर्ता   से  जा   पूछिए, प्रतिमा लाख  हजार।।

*श्रम*  की  रोटी  स्वाद से, भरी  हुई   भरपूर।

भले  अलोनी  ही   मिले, न हो उदर से   दूर।।


बड़े   भवन  अट्टालिका,सड़क दौड़ते  यान।

*श्रमिक* करें कारीगरी,तन- मन का श्रमदान।।

कहलाने  में *श्रमिक* को,लगे न कोई   लाज।

सुंदरता  इस  विश्व की, सभी उसी का काज।।


भले  अलग  हों क्षेत्र यों,किंतु सभी *मजदूर*।

दूर   कहीं  मत  सोचिए, कर्म करें  वे    शूर।।

एक   कमाता   नित्य ही, एक कमाए   मास।

किंतु  सभी *मजदूर*  हैं, जन जीवन  की श्वास।।


बिना *पसीना* चैन   की, वंशी बजे  न  मीत।

है  सुगंध  उसकी  भरी, सृष्टि  उसी का गीत।।

कृषक   बहाए   खेत में,सदा *पसीना*   मित्र।

उससे  ही धन-धान्य है, वही छिड़कता   इत्र।।


गोल-गोल    *रोटी*   बनी, इसके चारों  ओर।

धनिक  और निर्धन सभी,भरते  रहें   हिलोर ।।

*रोटी* ही  खाते  सभी, भरी  स्वर्ण की    खान।

उदर  भरें  दो  रोटियाँ, व्यर्थ सभी धन - धान।।


                   _एक में सब_

*श्रमिक*  श्रांत  *मजदूर* का,बने *पसीना* इत्र।

*श्रम* की *रोटी* मधुर हो,उज्ज्वल  बने चरित्र।।


शुभमस्तु!


07.05.2025●3.00आ०मा० (रात्रि)

                    ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...