सोमवार, 30 जून 2025

धर समाज सेवा का धंधा [बालगीत]

 316/ 2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


धर      समाज   सेवा    का    धंधा।

निपट    हुआ   है    मानव   अंधा।।


खाक  सड़क  की    झेल    रहे   थे।

मूषक     दण्डें       पेल    रहे    थे।।

करते      अरबों     का     अनुबंधा।

धर  समाज   सेवा     का      धंधा।।


हर्रा      नहीं       फिटकरी     कोई।

फिर    भी     तान    चादरें    सोई।।

मिला    पुरुष    का     सुदृढ़    कंधा।

धर    समाज     सेवा    का    धंधा।।


किसी  एक  रँग    में   घुस    जाएँ।

रात   -   रात   में   लाख    कमाएँ।।

कहता     कौन      खेल     दुर्गन्धा।

धर   समाज   सेवा     का     धंधा।।


करते   क्या     हैं   एक   न   जाने।

भरे     रहें     नित - नित    पैमाने।।

किसके    गले    डाल   दें     फंदा।

धर  समाज    सेवा    का    धंधा।।


सावधान      इनसे      है     रहना।

पड़े अन्यथा  क्या    कुछ   सहना।।

खेल     खेलते     कितना     गंदा।

धर    समाज  सेवा    का    धंधा।।


शुभमस्तु!


30.06.2025●4.45 आ०मा०

                   ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...