बुधवार, 4 जून 2025

बजी कुंज में वंशिका [ दोहा ]

 248/2025

         

[झरना,मधुकर,वंशिका,आँसू,कुटीर]


                  सब में एक

झरना    हरसिंगार     का,  देता  उर    आनंद।

छंद    सवैया   काव्य  में,  बहा   रहा   मकरंद।।

झरता झरना   शृंग  से,झर-झर- झर  सह वेग।

जीव - जंतु   वन मौन  हो,प्राप्त करें  ज्यों  नेग।।


मैं मधुकर  तुम  फूल  हो,करता मधुरस  पान।

प्रेमिल  जीवन   रागिनी, करती नव रस दान।।

अमराई    में    गूँजता , कोकिल  राग   वसंत।

मधुकर   चूमें  बौर  को,छुए न कण भर  दंत।।


बजी   कुंज    में वंशिका,  आए गोपी  ग्वाल।

रास      रचाया   नाचते,  करते  धूम धमाल।।

हरे  बाँस की  वंशिका,श्याम अधर की  शान।

रूठ गई  हैं  राधिका,  करें  कृष्ण  से   मान।।


नयनों   में  आँसू  नहीं, भरो प्राण की प्राण।

मृगनयनी   गजगामिनी, आजीवन दूँ   त्राण।।

आँसू  ढुलका  नैन से,क्या न गज़ब  हो  मीत।

पौरुष  पिघले  मोम-सा, चले  नारि विपरीत।।


रहते    कुंज   कुटीर   में,  लिए संत   संन्यास।

प्रवचन का  रस  बाँटते,जीवन हित मधु श्वास।।

जो  सुख शांत कुटीर में, मिले न महलों  बीच।

मन में   यदि  संतोष हो,   रहता   नेह   नगीच।।


                एक में सब

बजी वंशिका   कुंज में,   झरना झरे    सवेग।

आँसू  नहीं   कुटीर में, मधुकर   लूटें   नेग।।


शुभमस्तु !


04.06.2025●6.45 आ०मा०

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