732/ 2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
गाँव शहर की ओर दौड़ रहा है ,दौड़ा जा रहा है। थामे थम नहीं रहा है वह सोच रहा है कि जल्दी से जल्दी वह गाँव से शहर हो जाए।कितनी जल्दी ईश्वर की महर हो जाए कि वह शहर की लहर हो जाए। अब वह गाँव नहीं बने रहना चाहता।उसे किंचित मात्र भी सब्र नहीं है।गाँव के शहर होते चले जाने से किसी को कोई उज्र नहीं है।गाँव अपने ग्रामत्व से संतुष्ट नहीं है, अंदर ही अंदर वह वह रुष्ट ही है।पहले वह पढ़ता नहीं था, आज पढ़ रहा है ,नए नए प्रतिमान गढ़ रहा है और आगे और आगे बढ़ रहा है।उच्च शृंगीय तुंग शिखरों पर चढ़ रहा है। अब वह गाँव नहीं कहलवाना चाहता।वह अपने पाँव पीछे भी हटाना नहीं चाहता। वह शहर ही हो जाना चाहता है।उसका मन गाँव के एकांत से ऊब गया है। अब उसे शहर की चहल-पहल भा रही है। अब कोयल की कम, मोटरों की पों पों लगता है ; कुछ सुना रही है।गाँव की वीरानगी उसे डुबा रही है।
क्या कभी किसी ने शहरों का मन टटोला है ?क्या शहरों से कभी किसी ने कुछ शांति पूर्ण ढंग से बोला है? जो भी यहाँ रहा है या रहने आया है, सदा विष घोला है।गाँव और शहर का सब घालमेल हो गया है।आदमी से आदमी का तालमेल खो गया है ।इसलिए आदमी शहर में रहकर भी बिला गया है।आँसू दिखाई नहीं दे रहे,भीतर से तिलमिला गया है। गाँव में रहकर उसके अस्तित्व की पहचान है। शहर में आकर लगता है कि वह मेहमान है। हर समय तानी हुई कमान है। हर तीसरा आदमी उससे अनजान है।
शहर को शांति की तलाश है।इसीलिए वह अपने चेहरे पर दिखता निराश है।यद्यपि शहर में सुविधाएं सभी हैं ,पर यहाँ खुले हुए खेत और नीम के पेड़ की हवा की कमी है।न यहाँ बागों में कोयल की मधुर बोली है,न बच्चों की उच्छऋंखल किलकारी है न ठिठोली है।न मेंड़ के पीछे दूर जंगल में मेहो-मेहो करते मोर हैं और न दूर पूरब में होता हुआ सुनहरा भोर है। यहाँ सब कुछ बनावटी है और गाँवों से ही आयातित है। आदमी अंदर ही अंदर कितना व्यथित है। यहाँ बीमारियां हैं तो दवाएँ भी हैं।गाँव में अभाव हैं तो संवेदनाएँ भी हैं। यहाँ सब कुछ दिखावट है, प्लास्टिक के फूल पौधों की सजावट है।सुख है पर शांति नहीं है। प्रकृति से निरंतर बढ़ती हुई दूरी है। यहाँ बहुत कुछ होकर भी बहुत मजबूरी है।
गाँव और शहर मिल रहे हैं। जिज्ञासु चेहरे खिल रहे हैं।कुछ मिला है तो गाँव में बहुत कुछ खोया है। गिल्सरीन के आँसू ने चेहरा भिगोया है। औपचारिकताओं की भरमार है। आदमी की इज्जत तार -तार है।पैसे और धन की चकाचौंध है। आदमी को निज स्वार्थ का बोध है। यहाँ नहीं हैं ओसारे और झोपड़ियों में जलते हुए अलाव, यहाँ नहीं है गौरैया की चूँ चूँ और कागा की काँव- काँव, भले नहीं जलते अब खुली रेत में पाँव ,पर अभी भी जिंदा है वहाँ बरगद की घनी छाँव।
गाँव का मशीनीकरण हो गया है। न दो बैलों की जोड़ियाँ हैं, अब तो धड़धड़ाते हुए ट्रैक्टर हैं ,ट्रॉलियाँ हैं।न चरसे न ढेंकुली न नहर बम्बे का पानी। अब कौन है जिसको रात- रात भर कहानियाँ सुनाएगी उसकी बूढ़ी नानी।घर- घर सबमर्सिबल हैं ,ट्यूबवेल हैं, न रेतीली जमीन है ,बस डामरीकृत काली-काली सड़कें हैं। हाथ-हाथ में मोबाइल यहाँ भी है। चला जा रहा है वह कान से स्मार्टफोन दबाए। न किसी की सुने बस अपने में ही मस्त उड़ा जाए। गाँव दौड़ रहा है शहर की ओर और शहर भर रहा है कुछ और ही हिलोर। दोनों का संगम हो रहा है। रंग में तरंग का च्वंगम चुस रहा है। सड़कों और कंक्रीट के ऊँचे भवनों का जमघट है। न कहीं टेंट में बरात है न पनघट हैं। सब कुछ कलमय है। कलयुग जो चल रहा है। आदमी आदमी मचल रहा है। विकास का विवेक नहीं ,विकास की आँधी है। आदमी ने आदमी की लक्षमण रेखा जो लाँघी है।
शुभमस्तु !
13.12.2025●1.15 आ0मा0
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