713/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
यों तो दाल-रोटी या सब्जी -रोटी नित्य नियमित रूप से खाना है,किंतु वहाँ कभी किसी के लिए 'चटखारे' का भाव नहीं आना है ;क्योंकि हर नर -नारी बाल युवा या वृद्ध के लिए यह ढर्रा पुराना है। 'चटखारा' एक ऐसा भाव है जो सहज और सरल रूप में नहीं ही आता। जब यह आता है तो व्यक्ति से फिर रहा नहीं जाता। चटखारे लेने के लिए वह पगहा तक तुड़ाता। जब तक चटखारे न मिल जाएं,वह आपे में नहीं समाता। अंततः चटखारा है ही ऐसी चीज कि व्यक्ति दीवाना हो जाता है।
यों तो चटखारे लेने के लिए इस संसार में अनेक खाद्य व्यंजन हो सकते हैं।यह अलग-अलग व्यक्ति पर लागू होता है कि कौन किसमें चटखारे लेता है। हम तो यहाँ मात्र एकसूत्री चर्चा के चटखारे लेने के लिए बैठे हैं तो चटखारे भी उसी के लेंगे।एक के चटखारे में दूसरे से रसभंग भला कौन करे,इसलिए जिसके लिए आए हैं,उसी के चटखारे लेंगे,अन्यथा फिर तो वही बात हो जाएगी कि आए थे हरिभजन को और औटन लगे कपास। हमें कपास नहीं औटना है। हरि भजन ही करना है।
अब विलम्ब क्यों करें,जिसके चटखारे लेने हैं ,उसी रास्ते पर चलें और अपनी मंजिल ग्रहण करें।तुरंत ही मुद्दे की बात पर आते हैं और आपको सबको 'गोलगप्पों' के चटखारों का लुत्फ दिलवाते हैं। वैसे इसमें अन्यथा लेने की कोई बात नहीं ,गोलगप्पा - प्रिय सभी भाभियों, सालियों, सलहजों,आँटियों और सर्व आदरणीआओं को निमंत्रण भिजवाते हैं कि चलो चलो चलो आ गया , मंदिर वाले बरगद के नीचे गोलगप्पे वाला आ गया।वह कब से अममन्त्रण -बैल बजा रहा है,अपने ठेले पर गोलगप्पे सजा रहा है,मोहल्ले भर की बालिकाएँ,किशोरियाँ,खट्टे नमकीन चरपरे स्वाद की पिटारियाँ घिर रही हैं और अपनी-अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं। यों तो किशोर युवा भी खड़े हैं, वे चटखारे लेने के लिए उतावले बड़े हैं।
बहुत अच्छा किया कि मेरी एक आवाज पर आप सब पधार गईं। गोलगप्पे चीज ही ऐसी कि उसके नाम से ही मुँह में पानी भर-भर आता है। यहाँ खड़े -खड़े खाने में भला कौन शरमाता है! यहाँ तो नई- नई आई हुई दो -दो फुटी घूँघट वाली नवोढ़ाएं भी दौड़ी चली आती हैं,घूँघट को किंचित टेढ़ा सरकाती हैं और गप्प गाल में गोलगप्पा सरकाती हैं।गोलगप्पे की लाइन में खड़े-खड़े वे पूर्ण अनुशासिता रहती हैं, वैसे उनकी जबान भले ही पल भर को बंद न हो,यहाँ पर मौन खड़ी गप्प से मुँह के अंदर गपकाती हैं।यहाँ एक क्षण की भी जल्दबाजी नहीं दिखातीं,हाथ में दोना लिए हुए अपनी बारी का इंतज़ार करतीं और अंदर ले जातीं।किसी ने बीस के खाए ,किसी ने तीस के और किसी किसी ने तो पचास के लुढ़काए। पर आखिर करें क्या पेट भले भर ले,पर तृप्ति नहीं हो पाए।पर जो शुरू हुआ है ,उसका अंत भी होना है। भले ही गोलगप्पों का स्वाद कितना ही चटपटा और सलोना है।
अंत में ला दी एंड कर, एक सूखा और मीठा और खिला दे,और एक दोना हरा खट्टा इमली का पानी भी पिला दे। पर मन है कि हटता ही नहीं।चटखारे पर चटखारे चल रहे हैं,उधर खड़े कुछ किशोर मचल रहे हैं कि ये हटें तब जाएँ और हम भी चटखारे का स्वाद ले पाएँ।
बात ऐसी नहीं कि पुरुष नहीं खाते, पर वे कभी दीवानगी की सीमा तक नहीं जा पाते।वे तो बस औपचारिक रिश्ता निभाते हैं,जैसे पत्नी या साली जी के संग खा लिया, किसी भौजी के आग्रह पर पा लिया।ठीक वैसे ही जैसे होली का गीत सावन में गा लिया।
चटखारे के लिए जीभ ही नहीं मन की भी अहं भूमिका है। बनाने वाले ने उनकी जीभ और मन दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया है।जीभ और उनके मन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।खटास और चरपराहट का कोई विशेष नाता है,जहाँ यह मिलता है कोई लेशमात्र नहीं शरमाता है।जो लुत्फ ठेले के चारों खड़े होकर खाने में आता है,वह कुर्सी- मेज पर बैठकर किसी होटल में कहाँ ? सबका अपना अपना-अलग ही महत्व है। तभी तो ठेले के गोलगप्पों का अस्तित्व है। अब आप यह मत कह दीजिए कि यह तो पूरा का पूरा स्त्रीत्व है। दो चार फीसद पुरुष भी इन चटखारों के स्वादी होंगे।पर बहुमत तो बहूमत से ही बना है,इसलिए गोलगप्पे वाला यहाँ आकर रोज होता खड़ा है। जहाँ बहूमत बढ़ा की बहुमत का मीटर चढ़ा।यह तो एक प्राकृतिक पसंद की बात है। जब प्रकृति प्रेमी जो चाहते हैं,वह सब कुछ यहाँ सहज सुलभ हो जाता है। इसीलिए कहा है:-----
गोल-गोल गप्पे यहाँ,जब तक खाने खाँय।
प्राण गए परलोक में, जाय नहीं पछिताएँ।।
चटखारे लेती रहो, जब तक नामा पर्स।
खाती गप्पे गोल तुम, करना नहीं अमर्ष।।
जीभ कहे ललकार के, चल बरगद की छांव।
उड़ने अब कैसे लगे, भाभी जी के पाँव।।
तीखा चटपट मिर्च का,इमली भरी खटास।
गोल गोल गप्पे भरे ,आलू मटर भरास।।
समाहार के वास्ते, मीठा भी दे एक।
दोना भर खटजल मिले,जागे बुद्धि विवेक।।
शुभमस्तु !
06.12.2025●11.45आ०मा०
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