रविवार, 7 दिसंबर 2025

नज़रिया अपना-अपना [ व्यंग्य ]

 717/2025 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 यह तो हम सबका अपना -अपना नज़रिया है कि किसने किस रूप में जानी समझी ये दुनिया है।किसी किसी के लिए यह जंगल है और दूसरों के लिए जंगल में मंगल है।किसी के लिए पहलवानी का अखाड़ा है, और किसी के लिए महा दंगल है। किसी के लिए यह फूलती -फलवती बगिया है ,और किसी-किसी को कटने वाली बछिया है।कोई-कोई तो अभी गमले का सौम्य पौधा है और कोई लूटने के लिए हुआ औंधा है।किसी -किसी ने अपने आपको समझ लिया घोंघा है ,जो पड़ा हुआ नदी तल में बड़ा बोदा है। 

 किसी-किसी ने अपनी मजबूत जड़ें जमा रखी हैं,विविध स्वादों में मग्न है जलेबियाँ चखी हैं।राजनीति का खेत बड़ा समझा जाता है, जो भी यहाँ एक बार जड़ जमाता है,लौटकर नहीं जाता है ,वह येन केन प्रकारेण यहीं पर खप जाता है।ये राजनेता ही वे बड़े -बड़े जमे दरख़्त हैं, जो बाहर से टमाटर भीतर से बड़े सख़्त हैं। माँगने में भी इन्हें किंचित शर्म नहीं आती, माँगकर भूल जाने के नेताजी बड़े करामाती।इनके लिए दुनिया सोने की टकसाल है,जहाँ सोना ही सोना है,हर हाथ में कुदाल है। 

 नज़र घुमाकर देखिए तो दुनिया में करील, बेरी और बबूल भी हैं,जिनके किसी न किसी को चुभने के उसूल भी हैं। ऐसा नहीं है कि यहाँ गुलाब नहीं हैं, वे अपने दामन को बचाने में बस ख़्वाब ही हैं,कोई न कोई उन्हें तोड़ने की फ़िराक़ में है, कब झड़े फूल इसी ताक में है।

 कोई-कोई सम्पत्ति के बोझ से इतना भारी है,कि समाज को मच्छर-मक्खी समझने की उसे लगी असाध्य बीमारी है।उसे आम आदमी चूसने वाला आम दिखाई देता है,और गरीब तो कीट पतंगा ही नज़र आता है। वह आदमी को आदमी नहीं समझता ,परंतु अफसोस कि समय आने पर वह अपार धनागार उसकी प्राण रक्षा नहीं कर पाता और अस्पताल से लौटकर स्वस्थ शरीर घर वापस नहीं आता।

 एक आदमी का वर्ग वह भी है ,जो दूब की तरह कुचला जा रहा है।कोई कच्ची कली की तरह मसला जा रहा है। जो उठ गया ,वह उठ रहा है और गिर गया , वह निरंतर गिर ही रहा है। जो खाली है ,वह खाली का खाली है,जो भरा हुआ है वह लबालब खड़ा हुआ है।कहीं कोई साम्य नहीं,कोई ऐक्य नहीं,कहीं मतैक्य नहीं। सत्य की बात किसी को स्वीकार नहीं, जो अपने मतलब की हो उससे इनकार नहीं।यहाँ झूठ से झूठ टकरा रहा है, लड़ा जा रहा है,सत्य को भला पूछता ही कौन है। सत्य के नाम पर हर साक्षी मौन है। 

 इस दुनिया में बहुमत का जोर है। बहुमत के नाम पर यदि ईमानदार को मत न मिलें तो वह चोर है।बहुमत यदि मूर्खों का भी हो तो ,वह नमनीय है,वंदनीय है,अनुकरणीय है, अनुगमनीय है। इसी को लोकतंत्र के सुंदर नाम से अलंकृत किया गया है। सत्यमेव जयते के झंडे तले झूठमेव जयते का स्वागत किया जाता है। अन्याय की आँखों पर काली पट्टी बँधी है,जिसे सत्य असत्य का भेद देख पाने की सामर्थ्य नहीं बची है।झूठतंत्र ही प्रजातंत्र का अहम मंत्र है।दृष्टिभिन्नता में सच कहीं दूर पलायन कर गया है।

 शुभमस्तु ! 

 07.12.2025 ●11.45 आ०मा० 




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