712/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
मानवता में ईश का, बसता अतिशय अंश।
करता वह सत्कर्म ही, बनता जन- अवतंश।।
बनता जन-अवतंश, सदा मानव हित करता।
जब तक जीता व्यक्ति,विपिन में बाग बगरता।।
'शुभम्' यही सद्धर्म,विनाशें उर -दानवता।
तज दें क्रूर स्वभाव, कर्म में भर मानवता।।
-2-
बढ़ते ही अब जा रहे,धरती पर वे भार।
दानव मानव-शत्रु ये, करते नित्य प्रहार।।
करते नित्य प्रहार, कहाँ है अब मानवता।
करते जन- संहार ,बढ़ रही तम पामरता।।
'शुभम्' कहाँ हैं ईश, दुष्ट दानव हैं लड़ते।
दस के होते बीस, क्रूर दानव दल बढ़ते।।
-3-
बचना है संसार ये, मानवता से मित्र।
सबसे पहला धर्म है, सुधरे मनुज चरित्र।।
सुधरे मनुज चरित्र, कर्म सात्विक हों सारे।
प्रसरित हो शुभ इत्र,नहीं हों सरि-सर खारे।।
'शुभम्' ईश ने सोच ,समझ कर की जग रचना।
करे कर्म जो पोच, नहीं दानव वह बचना।।
-4-
शुभता सब पहचानते, नर-नारी खग ढोर।
किंतु नहीं सर्वत्र है, मानवता की भोर।।
मानवता की भोर, भरोसे अपने-अपने।
नर तन में जो चोर, हिंस्र पशु दानव जितने।।
'शुभम्' न मानव नेक,कभी दिखलाए लघुता।
बसता वहाँ विवेक, नहीं त्यागे वह शुभता।।
-5-
बोया जिसने बीज है, संतति में समुदार।
मानवता त्यागे नहीं,लेता जगत उबार।।
लेता जगत उबार, वही हर पीढ़ी जाए।
शुभता का वह बीज, सदा फलवान कहाए।।
'शुभम्' करे दुष्कर्म, अंततः नर वह रोया।
यही कथ्य का मर्म, बीज जिसने शुभ बोया।।
शुभमस्तु !
05.12.2025●9.00 आ0मा0
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें