रविवार, 7 दिसंबर 2025

अति का भला न नमकना [ व्यंग्य ]

 714/2025


   

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अति का भला न नमकना,न 'ति की भली मिठास।

दाल-नमक    अनुपात   ही,  उत्तम   एक प्रयास।।

कहने का भाव यह है कि मानव शरीर के लिए दाल-नमक अनुपात ही स्वादेय है, यदि इससे आगे  बढ़े तो वह सब कुछ अदेय है,अननुमेय है, अनुमति हेय है।दाल में  और अधिक नमक  वह खा भी नहीं सकता।किंतु मीठे से भरे रसगुल्ले,रबड़ी,जलेबी,पेड़े,रसमलाई,बर्फी आदि सैकड़ों मिठाइयाँ भर-भर खा जाए।वहाँ पर मीठे की सीमा का अंत नहीं आए। शायद इसीलिए भगवान ने मीठे गन्ने के हजारों लाखों एकड़ खेत उगाए।

गुड़ चीनी निर्माण के लिए कोल्हू और कारखाने चलाए और नमक का पेड़ एक भी नहीं। यद्यपि समुद्र नमक से भरा है, पहाड़ भी नमक से भरा खड़ा है,किंतु उसके लिए एक मर्यादा का प्रतिमान अड़ा है ;कि इससे अधिक नहीं। गन्ने का रस कितना भी पी जाइए ,कितने ही रसगुल्ले ,जलेबियाँ और रबड़ी डकार जाइए ;वहाँ खाने पीने की कोई मर्यादा रेखा ही  निर्धारित नहीं। जब तक कि मधुमेह न हो जाये, अब वह चाहे जिस कारण से बने,पर डॉक्टर चीनी और उससे बने व्यंजनों पर ही स्पीडब्रेकर लगवाए !

नमक ज्यादा खाया तो उच्च रक्तचाप का खतरा ,कम खाया तो निम्न रक्तचाप का पचड़ा,इसलिए संतुलन बनाए रखने का नियम पसरा। नमक की मित्र मिर्च ,यह भी मनुष्य की रसना की एक बड़ी सर्च,उसकी भी सीमा रेखा में रहने में नहीं कोई हर्ज। मिर्च हो न हो ,तो भी नमक महाराज अकेले ही स्वाद की गठरी उठा ले जाएं।और यदि कहीं मिर्च का भी साथ मिल जाए,तो सोने में सुहागा खिल जाए।फिर तो स्त्री क्या मर्द भी  शौक से खाए।बालक बालिकाओं और युवा वृद्धों को ललचाए।

प्रकृति ने मनुष्य के लिए षटरस बनाए। पता नहीं कौन सा किसको लुभाए।खट्टा,मीठा,चरपरा(तिक्त या तीखा), लवण,कषाय और कटु : सबका अलग-अलग गुण ,अपना ही मठ। पर रोटी सर्वथा अलोनी, न मीठी ,खट्टी ,कड़वी,कटु तिक्त न सलौनी।फिर भी सबसे अधिक उसी की माँग।पेट भरे रोटी से ही चाहे कितने कर लो स्वांग।दाल हो या सब्जी ;सबका साथ रोटी ही निभाती। गरीब हो या अमीर ,बाल वृद्ध ,नर या नारी  : सभी को रोटी ही भाती। यहाँ तक कि पशु पक्षी और अन्य जंतुओं को भी रोटी ही  सुहाती।सारी दुनिया गोल-गोल रोटी के चारों ओर घूम रही है।जीवन के कदम नाप रही है,सफलताएँ चूम रही है।उसका भी अपना एक स्वाद विशेष है, बहुत सारे अर्थों में आदमी मेष है।

मेरी मानें तो इतने सारे रसों में नमक और मीठा ही प्रधान है। अन्य रस तो कभी-कभी आने वाले मेहमान हैं। भला कषाय रस किसको भाता है ,वह तो मधुमेही ही है ,जो उसे  अनिच्छा से पसंद कर पाता है।कड़वा करेला बस औषधि बन कर रह गया है,अन्यथा  उसे सुस्वादु किसने बताया है। बकरी,भेड़,गधा,घोड़े,भैंस आदि का तो मुझे गुमान नहीं है।खट्टी चटनी पसंद और गोलगप्पा प्रेमियों की तो बात ही निराली है ,जो ठेले पर खट्टा ,मीठा,चरपरा और नमकीन   चतुररसों को एक साथ पाते हैं।कड़वे और कषाय का तो वहाँ कोई काम नहीं। अब यह तो षटरसों की खुलती जा रही है बही।इसलिए अब ज्यादा आगे न बढ़ते हुए करना होगा :नहीं नहीं।

उपसंहार स्वरूप इतना तो कहना ही होगा कि रस हो या नीरस। मर्यादा सबके लिए है। वह पूर्व निर्धारित है। कोई जाने या न जाने। कोई माने या न माने।चीनी गुड़ की भी मर्यादा है, खाने को लोग अति सर्वत्र वर्जयेत का पत्थर भी पार कर जाते हैं ,पर कोई किलो भर नमक या मिर्चें खाते हुए नहीं देखा सुना।मिठास ही सबसे  सस्ती है,उसी में बसी आदमी की सारी मस्ती है। इसीलिए कुदरत ने फलों में भर दी फ्रक्टोज़ की सरपरस्ती है। कोई भी फल नमकीन नहीं, गुठलियाँ  कषाय भले हों। अकेले लहसुन में ही पंचरस (अम्ल रस छोड़कर ) वास है। इसीलिए लहसुन एक  प्रकार का  अमृत  है।

उसमें मीठा,तिक्त,लवण,कटु और कषाय पंच रस समाए हुए हैं। 

संसार में रस भिन्नता से ही मानवीय स्वाद वैविध्य है। रसना देवी का स्वाद  ही उसका नैवेद्य है।जिससे वह परितृप्त होती है। समग्र रस सामग्री को उदर में धकेल कर सुप्त होती है।


शुभमस्तु !


06.12.2025● 2.30प०मा०

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