मंगलवार, 9 दिसंबर 2025

रंगों का रेला [ व्यंग्य ]

 724/2025 



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 सब कुछ सच -सच और सही -सही जानते हुए भी आदमी (और औरत भी) अपने को भुलावे में क्यों रखता है; यह एक सोचनीय तथ्य है।वह यह जानता /जानती है कि ये क्रीम, पाउडर, लिपस्टिक ,रूज, मस्कारा,मेंहदी, महावर उन्हें गोरा नहीं बना सकते,सुंदर नहीं बना सकते ;फिर भी हर रोज दाल-रोटी को खाने की तरह लीपे-पोते जाते हैं।यदि क्रीम या पाउडर लगाने से कोई गोरा हो जाता /जाती तो आज पूरा अफ्रीका गधे की तरह गोरा हो जाता। भैंस काली होती है,तो काली ही रहेगी ;उसे गोरा करने का कोई उपाय बना ही नहीं।भैंस कितनी भी काली हो ,किन्तु उसका दूध काला नहीं हो सकता ,गोरा ही होगा। यदि कुदरत को भैंस गोरी करनी होती तो उसे गाय से भिन्नता प्रदान करना कितना कठिन होता ! इसलिए पुराने लोग कह गए हैं कि जो जैसा है ,उसे बदलने की कोशिश मत करो। उसे वैसा ही रहने दो। इसी सोच में सुख शांति है। अन्यथा भ्रांति ही भ्रांति है। आदमी (औरत भी) भ्रांति -सुख में जी रहे हैं।दुख तभी होता है,जब भ्रान्ति भंग होती है और असलियत संग होती है; अपनी पोजिशन तंग होती है। भ्रांति में बड़ी उमंग होती है ,किंतु जब-जब वह कुरंग होती है,तो खरहे का चूहा नजर आता है और अपना सु-रूप कुरूप बन जाता है। 

 इस रंगभेद ने दुनिया में बड़े -बड़े कहर बरपाए हैं। बड़ी -बड़ी क्रांतियां इसी रंगभेद के कारण हुईं और आज भी लड़के- लड़कियों की शादी में हो भी रही हैं।कोई भी लड़का या उसका पिता या उसकी माँ अपने लड़के के चेहरे को आइने में नहीं देखते। सब कुछ जानते हुए भी देखना भी नहीं चाहते।लड़के का रँग भले उलटा तवा हो किन्तु बहू भूरी भक्क़ ही चाहिए।इसका अर्थ यह भी हुआ कि काली लड़की से कोई विवाह नहीं करना चाहेगा। कहने को तो इस चमड़ी के दो ही रंग हैं :काला और गोरा ;किन्तु काले के प्रति इतनी घृणा और गोरे के लिए महत आकर्षण । कहीं कोई संतुलन नहीं, वैचारिक साम्य नहीं। काले शरीर में सुंदर मन रह सकता है ,तो गोरी मुस्कान में क्रूर राक्षसी भी मिल सकती है ,जो अंततः पतिघातिनी होकर कितना नीचे जा गिरती है। 

 ये समाज एक नाट्यशाला है। हर व्यक्ति इसकी रंगशाला में अपने -अपने किरदार को किए जा रहा है। 'जो आया जेहि काज से,तासों और न होय ' के अनुसार हर चेहरे पर एक मुखौटा पड़ा हुआ है। उसका वास्तविक रँग और रूप कुछ और ही है। उसी मुखौटे और देहावरण के नीचे उसे तरह- तरह के खेल खेलने हैं। भला उनसे इतर वह कैसे हो सकता है। अंदर से कुछ और बाहर से कुछ और। जब तक कोकिल और कागा बोलें नहीं ,तब तक उन्हें कौन पहचाने ? बस सभी मनुष्य इस नाटक में मग्न हैं कि उन्हें कोई पहचान न सके। 

 वर्ण भेद के आधार पर दुनिया कई भागों में बंट गई है।वर्ण भेद ने ही इस देश में चार वर्ण बना डाले:ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र। जो जितना कम काम करे ,वह उतना ही महान और जो करते- करते परेशान हो ,वह सहे उतना ही अधिक अपमान। कम काम वाला गोरा और परिश्रमी काला। एक तरफ उजाला , दूसरी ओर रंग नितांत काला। क्या ही अद्भुत विसंगत भाव है निराला। इंद्रधनुष के सात रंगों में मात्र काला और दूध का उजाला।श्रेष्ठता का एक असंगत बँटवारा। आदमी ही आदमी को काटता दुधारा। फिर कैसे लगे इस आदमी को आदमी प्यारा। 

 मन का रंग भला किसने परखा है,पहचाना है ? वह तो इतने रंग बदलता है कि सर्वथा अनजाना है।यों तो एक ही छत के नीचे रात- दिन रहने वाले पति-पत्नी भी एक दूसरे का मन टटोल ही पाते हैं,उसकी ऊँचाई या गहराई में उतर नहीं पाते। फिर किसी अन्य के मन की परतें खोलना और तोलना कितना असम्भव काज है। यह आदमी नाम का जंतु तो मन का सरताज है। जो कल था, वह नहीं आज है।कल क्या हो जाएगा ,इसका होता ही नहीं आगाज़ है। शायद कर्ता ने मन को अदृष्ट और अंतर में समा दिया है,इसीलिए वह रहस्य का साज हो गया है। और चमड़ी का रंग बाहर से दिखा दिया है, जो मन का आईना नहीं है। पर आदमी है कि इस देह की चमड़ी को ही रँगे फिर रहा है। सब गोरा होने के होड़ में दौड़ रहे हैं ,और अपने चेहरे के रंग मरोड़ रहे हैं। उधर इस रंगभेद के कंपटीशन में कल कारखाने मर्यादा छोड़ रहे हैं। उन्हें सात्वकी या तामसी ,हिंसा- अहिंसा ,सदाचार -अनाचार से कोई मतलब नहीं है।बस पैसा कमाने की होड़ है, झूठ को सच साबित करने में विज्ञापनों का तोड़ है। यह वर्णवाद का अद्भुत मेला है,जहाँ खास से लेकर हर आदमी खेला है। यह तो रंगों की एक बाढ़ है, जहां लहरों का लहराता रेला है।

 शुभमस्तु ! 

 09.12.2025 ●10.45 आ०मा०

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