709/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
होता नष्ट विवेक, करता है अभिमान जो ।
काम न करता नेक,खोता शुभता सोच की।।
करता जो अभिमान,कुफल भोगता आदमी।
स्वयं करे अवसान, राहें रुकें विकास की।।
मूढ़ बुद्धि बलवान,फूल गया अभिमान में।
रुदन बन गया गान,काम न आई शक्ति भी।।
होता है यह सत्य,झुके शीश अभिमान का।
बिगड़ें सभी अपत्य,राह नहीं निज सूझती।।
करता नहीं विकास,करके नर अभिमान को।
जग में हो उपहास, गिरता कूप विनाश के।।
जान रहा संसार,रावण के अभिमान को।
तन -धन गया सिधार,लंका सोने की जली।।
मथुरा का वह कंस,भूल गया अभिमान में।
उड़ा एक दिन हंस,कृष्ण विष्णु हरि रूप हैं।।
मानव का अभिमान,विकृत करता बुद्धि को।
ताने तमस -वितान, उस जैसा कोई नहीं।।
देह रूप अभिमान, चार दिनों की चाँदनी।
जब होगा अवसान, मिले खाक में रूप ये।।
वृथा सभी अभिमान,तन धन या निज रूप के।
बचे न कण भी धान, मिल जाते सब खेह में।।
जब पड़ जाए एक,परदा बुद्धि विवेक पर।
होता शून्य विवेक, वही काल अभिमान है।।
शुभमस्तु !
04.12.2025●9.45आ०मा०
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