715/2025
[रूप,गुण,धन,वैभव,व्यवहार]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
गर्व न करना रूप का, बदल रहा ज्यों धूप।
सूरज ढलता देह का, रहे नहीं वह रूप।।
सद्गुण ही शुभ रूप है,जाने जगत असार।
देह विनशती आग में,खेह नदी की धार।।
गुण ही जग में पूज्य हैं,अवगुण का क्या मोल।
बगुला कौवा को कभी , मिले न मान अडोल।।
वाह वाह होती सदा, जो होता गुण वान।
दुर्गुण ही जिसमें भरे, उसे न मिलता मान।।
मानुष जो धनवान है, करे वही अभिमान।
धन से बड़ा चरित्र है, करे नेह का दान।।
धन से मिलती आयु जो, मरते नहीं अमीर।
सोना- चाँदी से लदे ,अमर न हुए वजीर।।
चकाचौंध दिखला रहा, वैभव जिनका आज।
अहंकार के भोग हैं, वृथा कनक का साज।।
वैभव के साम्राज्य से, इतराता नर मूढ़।
नहीं ईश वह ज्ञान का, गर्दभ पर आरूढ़।।
नहीं रूप बल श्रेष्ठ हैं, श्रेष्ठ सदा व्यवहार।
धन तो जैसे खेह है, प्रथम मनुज आचार।।
जग जीता व्यवहार ने, नहीं जीतता तेग।
धन तन बल सब नष्ट हों,यद्यपि हो अति वेग।।
एक में सब
धन वैभव गुण रूप का, नाशक है यह काल।
उत्तम हो व्यवहार तो, बनता रक्षक ढाल।।
शुभमस्तु !
06.12.2025●10.30 प०मा०
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