शनिवार, 13 सितंबर 2025

तुरुप का पत्ता [ व्यंग्य ]

 553/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ताश के खेल में भला 'तुरुप' या 'तुरुप के पत्ते' को कौन नहीं जानता! इसमें एक छोटे से छोटे पत्ते को जब तुरुप का दर्जा दे दिया जाता है तो उसका भाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह किसी भी बड़े से बड़े पत्ते पर हावी होना चाहता है।यह किसी को भी पराजित करने अथवा पछाड़ने का एक तरीका होता है। वह उसे पछाड़ता और पराजित करता भी है।अपने आलंकारिक रूप में इसे 'ट्रम्प कार्ड' भी कहते हैं। मैं दुनिया के किसी ट्रम्प से परिचित नहीं हूँ, यद्यपि अखबारों और समाचारों में उस ट्रम्प का नाम बहुतायत से लिया और प्रचारित किया जा रहा है। कहा जाता है इन ट्रम्प महोदय में और ताश की गड्डी के ट्रम्प कार्ड (तुरुप के पत्ते ) में कोई अंतर नहीं है। यदि कोई अंतर है भी तो मात्र इतना ही कि ताश की गड्डी में उसे खिलाड़ी चुनते हैं अथवा मान्यता देते हैं ,लेकिन इन ट्रम्प महोदय को भले ही अमेरिका की जनता ने चुना हो ,किन्तु वह तो 'मान न मान मैं सबका मेहमान ' की तर्ज पर बिना बुलाये अपनी चौकी छोड़कर दूसरों के चौके में घुसे आना चाहते हैं। और अपने ट्रम्पत्व के ग्रहण से सबको ग्रस्त कर लेना चाहते हैं। 

  यह ट्रम्पत्व या तुरुपत्व कोई नई बात नहीं है। यह तो अनादि काल से उस समय से चला रहा है जब कमजोर की लुगाई सबकी भौजाई हुआ करती थी। यह परंपरा उस समय से चालू है जब हर बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को खाना चाहती थी और खा भी जाती थी। इस समाज की बड़ी-बड़ी मछलियाँ सदैव से छोटी मछलियों को अपना आहार बनाती चली आ रही हैं। अब वह चाहे नेता हो या अधिकारी,मजदूर हो या व्यापारी,नर हो अथवा नारी,बस हो या बैलगाड़ी -ये ट्रम्प कार्ड और तुरुप के पत्ते सब जगह सफलता पूर्वक चले हैं। जाति के स्तर पर सवर्णों ने अपने छोटी माने जातियों पर अपना तुरुप का सिक्का जमाया है। यह एक कटु सत्य है।वे अपने ट्रम्प कार्ड के चलते किसी का विकास नहीं देख सकतीं। वे उन पर हावी रहकर उनका शोषण करती आ रही हैं और अपना तुरुप का पत्ता चलाने में सफल भी हैं। किन्तु धीरे -धीरे जागरूकता और शिक्षा के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण तथाकथित तुरुप के पत्ते फाड़ कर फेंक दिए जा रहे हैं। कोई बड़ा नेता किसी नए नेता को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता ।हाँ,दूसरे दलों की आलोचना करते हुए परिवारवाद में तल्लीन है। अपने बेटे को तो विधायक सांसद या मंत्री बनाना चाहता है,किंतु किसी पड़ौसी को उस रूप में देख पाना उसे फूटी आँख भी नहीं सुहाता।यह भी आधुनिक तुरुपवाद या ट्रम्पवाद है। 

  हर सास और ननद अपनी नवागता पुत्रवधू या भाभी पर तुरुपचाल चलने से बाज नहीं आतीं। अपनी तुरुप का सिक्का चलाने के लिए वे अपने सासत्व या नंदत्व का झंडा बुलंद किए रहती हैं।यह घर -घर की कहानी है ।घर-घर के स्टील के चूल्हों में एक ही एल.पी. जी. की आग जल रही है। करोड़ों घरों में यदि कोई अपवाद मिल जाए तो वह घर या परिवार सम्मान का पात्र होगा। वह घर देव घर होगा,मानव घर नहीं। जहाँ तुरुप का सिक्का न चले ,वह घर क्या ?वह सास क्या ?वह ननद (जो भाभी को आनन्दित न रहने दे : वही न नद)भी क्या ;जो भाभी को चैन से जीने दे ! ऐसी ननद को ननद की परिभाषा से बाहर करना होगा। 

 अपने आप अपने बाप की बहन अर्थात बड़ी बुआ बनना कोई अच्छी बात नहीं है ।ये बड़ी बुआएँ देश दुनिया या समाज में रायता फैलाती रही हैं। उन्हें केवल अपनी तुरुप चाल जो चलनी है।इस परंपरा में तिल मात्र भी कमी नहीं आई है। और अब तो देश के देश अपनी तुरुप चाल के लिए बड़ी बुआ बन रहे हैं।जो प्रवृति कभी मानवीय और सामाजिक स्तर पर थी ,अब वह अंतर राष्ट्रीय हो गई है।

 आइए इन बड़ी बुआओं को जानें और अच्छी तरह पहचानें। देश और हम सभी जाग गए हैं।इसलिए ये ट्रम्प कार्ड दूर भाग गए हैं। अब मित्र !मित्र!! का इत्र सर्वत्र अपने चरित्र का स्वरित्र बजा रहा है।जिसकी मधुरता में भरा संगीत हम सब पहचान भी रहे हैं। हम वह हिरन नहीं हैं,जिसे सारंगी बजाकर सम्मोहित किया जा सके।बहुत चल गईं तुरुप की चालें और ट्रम्प की तालें, हम इतने सीधे भी नहीं कि सीधे समझकर अपनी ग्रीवा ही कटा लें।यदि अपने अंदर कूव्वत है तो किसी ट्रम्प के ताश को ही क्यों अपनायेंगे ?दुनिया बहुत बड़ी है, यदि सामर्थ्य होगी तो दूसरे भी दौड़े चले आयेंगे। 

 शुभमस्तु ! 

 13.09.2025●12.00मध्याह्न 

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