रविवार, 14 सितंबर 2025

वाक़् -सिद्ध' [ नवगीत ]

 554/2025


           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रात -रात भर

परखा तेरा

भौं -भौं का भौकाल।


बहुत गलत है

कुत्सा कहना

कुत्ता भी अपमान

वाक़्-सिद्धि

पाई है तुमने

तुम मानव की शान

मुझको कहना है

अब तुमको

'वाक़् -सिद्ध' सौ साल।


चोरों से रक्षा 

तुम करते

जागरूक ही करना

उत्तम है

संदेश तुम्हारा

सन्नाटे को भरना

स्वर से स्वर का

संगम होता

मिली वाक़् से ताल।


'वाक़् -सिद्ध' की

ऊँची पदवी

देता रचनाकार

तुम  भी याद 

रखोगे  कवि को

एक अकिंचन प्यार

'शुभम्' न भूले

भौं -भौं भोंकन

तू ही एक मिशाल।


शुभमस्तु !


14.09.2025●12.45 आ०मा०(रात्रि)

                 ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...