रविवार, 31 अगस्त 2025

जगत कर्म में लीन है [ दोहा गीतिका ]

 483/2025


      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जगत   कर्म    में लीन है,किंतु न जाने  माप।

कर्म  कौन  सा  पुण्य है ,और कौन सा पाप!!


अपना  सुख  संतोष ही,समझें सभी  महान,

सभी   चाहते  छोड़ना, अपनी  ही पदचाप।


माल   पराया   छीनते,  रटें  राम  का   नाम,

रँगे  गेरुआ वस्त्र वे ,करें दिवस-निशि  जाप।


आपस  के  संघर्ष  में ,लिप्त  हुए  बहु  देश,

बढ़ा  हुआ  है विश्व का,विकट भयंकर ताप।


लिए  कटोरा   हाथ में, माँग  रहा जो  भीख,

अमरीका    की   गोद में, बैठा  करे विलाप।


कहीं   बमों का   शोर  है,आतंकी  अति  क्रूर,

रार     मचाते     देश   में, माँग   रहे कंटाप।


'शुभम्'  देश   आजाद  है , किंतु शांति  है दूर,

लगता भारतवर्ष के, लिखा भाग्य अभिशाप।


शुभमस्तु !


31.08.2025●10.15 प०मा०

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कर्म कौन सा पुण्य है [ सजल ]

 482/2025


        

समांत           :आप

पदांत           : अपदांत

मात्राभार      : 24.

मात्रा पतन    : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जगत   कर्म    में लीन है,किंतु न जाने  माप।

कर्म  कौन  सा  पुण्य है ,और कौन सा पाप!!


अपना  सुख  संतोष ही,समझें सभी  महान।

सभी   चाहते  छोड़ना, अपनी  ही पदचाप।।


माल   पराया   छीनते,  रटें  राम  का   नाम।

रँगे  गेरुआ वस्त्र वे ,करें दिवस-निशि  जाप।।


आपस  के  संघर्ष  में ,लिप्त  हुए  बहु  देश।

बढ़ा  हुआ  है विश्व का,विकट भयंकर ताप।।


लिए  कटोरा   हाथ में, माँग  रहा जो  भीख।

अमरीका    की   गोद में, बैठा  करे विलाप।।


कहीं   बमों का   शोर  है,आतंकी  अति  क्रूर।

रार     मचाते     देश   में, माँग   रहे कंटाप।।


'शुभम्'  देश   आजाद  है , किंतु शांति  है दूर।

लगता भारतवर्ष के, लिखा भाग्य अभिशाप।।


शुभमस्तु !


31.08.2025●10.15 प०मा०

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धारा [ चौपाई ]

 481/2025


                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बहती  जहाँ    काव्य  रस   धारा।

मिले     वहाँ     जान्हवी- किनारा।।

काव्य -  नदी    में     चलो   नहाएँ।

श्रोता  कवि जन  सब   तर   जाएँ।।


अविरल      धारा     बहती   जाए।

किसे   नहान    नहीं    तब   भाए।।

शब्द    भाव   में   कवि  रस भरता।

विधि का  रूप   सृजन   में  धरता।।


दोहा           कुंडलिया       चौपाई।

तुलसी      कबिरा    सूर    सुनाई।।

पंत      प्रसाद        महादेवी     की।

धारा    बही       काव्य  सेवी  की।।


कोई    ग़ज़ल    गीतिका     लाया।

धारा का   प्रवाह      शुभ  आया।।

छंद    सवैया      अति     मनहारी।

सुने     सोरठा    शुभ     उपकारी।।


व्यंग्य  काव्य में   'शुभम्'   रमा   है।

लेखों    का   क्या  अजब समा है!!

बहे  वहाँ     भी      कविता  धारा।

हास्य-व्यंग्य      का   चढ़ता  पारा।।


आदि काल से  अब   तक   कितने।

कवि    साहित्यिक    आए   इतने।।

अलग  सभी    की   कविता- धारा।

मानस  भोजन   का   कवि   तारा।।


जहाँ    काव्य - धारा    बहती   है।

संस्कृति   की  गाथा    कहती    है।।

रहे  अगर      जिंदा   कवि - धारा।

बचा  रहे      यह      देश    हमारा।।


शुभमस्तु !


31.08.2025●9.15 प०मा०

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शनिवार, 30 अगस्त 2025

मिर्चें [ व्यंग्य ]

 480/2025


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 अब मिर्च तो मिर्च है,उसे लगना ही है।यह अलग बिंदु है कि वह कहाँ लगेगी।सबसे पहले तो खेत में अपने पेड़ पर ही लगती है। वही उसका उद्भव केन्द्र है।उसके बाद कोई ठिकाना नहीं कि वह कहाँ जाकर लग जाए ! कभी किसी की जीभ में तो कभी किसी के दिल में जाकर लग जाए। कभी- कभी यदि करेले जैसी अप्रिय और सत्य गुणकारी बात आ जाए तो 'कहीं और' भी जाकर जा लगे। इस प्रकार मिर्च ने साहित्य के खेत में भी अपना अड्डा जमा लिया और मिर्चें लगना एक प्रचलित मुहावरा बन गया।हाँ,इतना अवश्य है कि मिर्च का जन्म ही लगने के लिए हुआ है,तो उसे लगना ही है। लगेगी ही और लगती भी है।

 ऐसा भला कौन है जिसे मिर्च या मिर्ची लगने का गूढ़ अनुभव न हो। जीवन में सबको कभी न कभी ये लगनी ही है।मिर्च उस सत्य का प्रतीक है जो झूठ को बर्दाश्त नहीं करता।मिर्च उस यथार्थ का पर्याय है जिसे सहन कर पाना सबके वश में नहीं है। पर क्या किया जाए जब सामने आ ही जाय तो लगना भी अनिवार्य है। सभी अपना -अपना काज करते हैं,मिर्च का भी लगना शुभ महत कार्य है। 

 मिर्च का अपना एक अलग स्वाद है।एक अलग ही संवाद है।वह जो करती है ,वह नहीं कोई अपराध है। यह उसका कर्तव्य है। सत्य और यथार्थ का मंतव्य है। यह अलग बात है कि अलग -अलग पात्र में उसका अलग -अलग ही गन्तव्य है। जो मिर्च में है वह जीरे हल्दी सौंफ अजवायन आदि में अलभ्य है। इस स्तर पर मिर्च सबसे निराली है।कभी वह हरी है कभी लाल है तो कभी काली है।जो भी लेता मिर्च का स्वाद बजा उठता युगल कर से ताली है।

 प्रकृति ने मिर्च बनाई तो थी भोजन के स्वाद के लिए किन्तु उसकी बहु आयामी उपयोगिता ने चमत्कार ही कर दिया। साहित्य के खेत में भी प्यार भर दिया।लगती है तीखी फिर भी लोग छोड़ते नहीं हैं। मिर्च यदि उचित मात्रा में पड़ जाए तो वही भोजन सही है। ये अलग बात है कि वहाँ नमक का साथ और स्वाद भी जरूरी है।जिस प्रकार जीवन में सब कुछ संतुलित होना चाहिए ,वैसे ही मिर्च को भी संतुलित होना अनिवार्य है ।अन्यथा स्वाद और 'आनन्द के स्थान' पर उसे लगना ही लगना है,जो सबको बर्दाश्त नहीं होना है। 'अति सर्वत्र वर्जयेत' के अनुसार मिर्च का भी संतुलन रहे,यह आवश्यक ही नहीं,अनिवार्य भी है।

 कुछ लोगों की जबान में मिर्च का वास है। किसी को स्वाद देने के स्थान पर 'लगना' ही 'लगना' उसका काज है। मिर्च को अपनी इसी अदा पर नाज है।जुबान से बात में और बात से कान में और कान के बाद कहाँ जाकर लग जाए ,यह पूर्व निर्धारित अथवा पूर्व घोषित नहीं है कि वह कहाँ जाकर लगेगी ! पेड़ का उत्पाद जब जुबान में पैदा होने लग जाए तो क्या-क्या गज़ब नहीं ढाए? यदि आप नहीं मानें तो किसी नेता के भाषण में मिर्च भरे ताने।नेताओं की जुबान से कभी हरसिंगार के फूल नहीं झरते। वहाँ तो मिर्चों का गोदाम है।इसलिए मिर्चों के पाउडर को बिखेरना उसका काम है। अब नेता चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, उसकी जिह्वा पर मिर्चावास है तो श्रोता को मिलना ही मिलना उसी का स्वाद है।इससे अधिक उम्मीद उससे की भी नहीं जा सकती।वह लगा देता है मिर्चें झोंकने में अपनी पूरी शक्ति। नेता मिर्चों की ही तो किया करता है भक्ति।मिर्चों में ही होती है नेताजी की अनुरक्ति। 

 केवल नेता ही नहीं ,समाज में ऐसे बहुत सारे नागरिक /नागरिकाएँ हैं,जिनकी जीभ पर मिर्चों का भंडार है। मिर्चों से फुलफिल उनका हर शब्द ,हर उद्गार है।वहां मिर्चों ही मिर्चों की भरमार है।उन्हें तो अन्यों को मिर्ची लगाने का खुमार है। सास और बहुओं में ये मिर्ची तथ्य शुमार है।इसीलिए तो घर परिवार में कलह का बुखार है।

 दूसरों को मिर्च लगाने में लोगों को आत्म संतुष्टि मिलती है।आनन्द आता है। अपने आनंद प्राप्ति के लिए वे मिर्च उगलना क्या उसकी बरसात भी कर सकते हैं।जिनका जो काम है,उसके बिना रह भी नहीं सकते हैं।जब तक वे किसी पर मिर्च न बुरक लें,उनकी दाल रोटी हजम नहीं होती। वे मिर्चें ऐसे छिड़कते हैं कि वह कोई शालिग्राम का प्रसाद हो।उनकी मिर्ची दान से भले ही कहीं फसाद हो, इससे उन्हें क्या ! छप्पर में लगा के आग जमालो दूर खड़ी! अब कोसती रहो तुम यहाँ खड़ी-खड़ी घड़ी-घड़ी । उन्हें तो मिर्ची बुरकन में ही मिलती रबड़ी। इस प्रकार मिर्च के सकारात्मक और नकारात्मक : दोनों ही पहलू हैं।यह तो पात्र-पात्र की बात है कि किसको कितनी लगती है और कौन लगाता है।

 शुभमस्तु ! 

 30.08.2025 ●9.45 आ०मा० 

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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

तेजपत्ता [ व्यंग्य ]

 479/2025



 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 तेजपत्ता और उसके गुणों से भला कौन परिचित नहीं है।यह एक पत्ता होने के साथ -साथ तेज भी है। अपने चारु चरित्र से यह किसे मोहित नहीं करता।यह एक ऐसा विरक्त स्वभाव का सुगंधित और गुणकारी द्रव्य है,जो अपने कृतित्व की छाप छोड़कर अलग हो जाता है।इसे दाल, पुलाव, साँभर,करी, सूप,बिरयानी आदि में उनका स्वाद और सुगंध बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। 

 जैसे कि आप जानते ही हैं कि मनुष्य एक अति स्वार्थी और आत्मकेंद्रित प्राणी है। वह अपना उल्लू सीधा करके अलग हो जाता है। इस मामले में तेजपत्ता एक ऐसा निदर्शन है ,जो मनुष्य की भयंकर स्वार्थवादी वृत्ति का शिकार है।वह विभिन्न खाद्य पदार्थो में उसे सुगन्ध और उसके गुणों के लाभ प्राप्त करने के बाद उससे सर्वथा विमुख ही नहीं हो जाता,वरन उसका तिरस्कार करते हुए उसे अपने संपर्क से भी च्युत कर देता है और महानता देखिए उस तेजपत्ते की कि वह अपनी सारी तेजी दिखाने के बाद विरक्त भाव से विदा हो जाता है।व्यक्तित्व हो तो ऐसा जैसा तेजपत्ता।न कोई लोभ लालच और न कोई उलाहना और न शिकायत ही।मौन भाव से विरक्ति का यह एक अनुपम उदाहरण है। 

 तेजपत्ते के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा है। वह भी किसी से अपना काम निकालकर तेजपत्ते की तरह अलग कर विमुख हो जाता है। इस दृष्टिकोण से तेजपत्ता उसका प्रेरक ही नहीं शिक्षक भी है।अपनी सुगन्ध बिखेरकर संबंधों से विरक्ति इसकी विशेषता है। इससे यह भी सबक मिलता है कि दुनिया स्वार्थ भरी है, यह केवल स्वाद और सुगंध से अपना काम निकाल कर उसे भूल जाती है। दूसरे शब्दों में इसे कृतघ्नता कहा जाता है। मनुष्य जैसे प्राणी के लिए यह अशोभनीय और निंदनीय भी है। 

 मानव की यह गुण ग्राहकता यह शिक्षा देती है कि 'सार-सार को गहि रखे थोथा देहि उड़ाइ।' तेजपत्ता का सारतत्त्व उसकी सुगंध और विविध प्रकार के औषधीय गुण हैं।यही उसका सार तत्त्व हैं,जिन्हें ग्रहण कर लिया जाता है और शेष पत्र को निस्सार मानकर फेंक दिया जाता है।मानव की उपयोगितावादी सोच और जीवन दृष्टि बहुत कुछ सीमा तक श्लाघनीय भले हो सकती है,किन्तु यह तिरस्कार और उत्क्षेपण सराहनीय कदापि नहीं है।

 इस असार संसार में कोई भी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज महत्त्वहीन नहीं है। यह तथ्य की बात तेजपत्ता प्रसंग से भलीभाँति विदित हो जाती है।तेजपत्ते को भी आदमी के इस व्यवहार ,जिसे सद व्यवहार तो कदापि नहीं माना जा सकता ;से अच्छा पाठ पढ़ने को मिल गया होगा। उसकी यह मानव के प्रति आसक्ति उसके जीवन की कोई सुघटना नहीं है। हाँ,सबक लेने की चीज अवश्य हो सकती है। 

 शुभमस्तु !

 29.08.2025●6.15 प०मा०

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हँसना या मुस्कराना [ व्यंग्य ]

 478/2025


 

 © व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 यद्यपि मनुष्य अन्य जंतुओं की तरह ही एक जंतु है।किंतु उसकी ऐसी कुछ विशिष्टताएँ हैं ,जो अन्य जंतुओं में नहीं मिलतीं।उसमें बहुत सारी ज्ञात अज्ञात विशिष्टताएँ होंगीं ,किंतु हम यहाँ पर उसकी मात्र एक विशेषता हँसने या मुस्कराने पर चर्चा की चौपाल सजाने वाले हैं। 

 घोड़ा, गधा, गाय, भैंस, बकरी, भेड़,ऊँट,हाथी,तोता, मैना, मोर, गौरैया,तीतर,बटेर,शेर,चीता,गीदड़, हिरन,ऊदबिलाव,बारहसिंहा,मछली,कछुआ,मेढक आदि अनेक थलचर,जलचर,नभचर,सरीसृप आदि का अस्तित्त्व संसार को आबाद किए हुए है।किंतु इनमें से मनुष्य के अतिरिक्त किसी को हँसते -मुस्कराते हुए नहीं देखा सुना गया। यह विशिष्टता केवल मनुष्य में ही पाई जाती है। 

 हँसना या मुस्कराना दोनों प्रतीक हैं। सामान्यतः ये दोनों हर्ष के प्रतीक ही माने जाते हैं;किंतु कभी- कभी किसी विशेष परिस्थिति में इसके विपरीत अर्थ भी दे जाते हैं।हँसने की क्रिया में मुख से ध्वनि हो सकती है और नहीं भी हो सकती ।यह हँसना भी कोई सामान्य नहीं है। यह भी एक नहीं सात प्रकार का होता है। स्मित,हसित,विहसित,उपहसित, अपहसित,अतिहसित और अट्टहास।यह 'स्मित' हास्य ही मुस्कराना है। जिसमें सौम्य प्रकृति के व्यक्ति इस प्रकार धीरे से हँसते हैं,कि कोई ध्वनि नहीं होती और होंठ गुलाब की कली की तरह किंचित खिलकर रह जाते हैं। 'हसित' स्मित से किंचित विस्तार लिए हुए है और यह हास्य भी सौम्य प्रकृति के लोगों का विशेष गुण है। हसित से भी व्यापक और बड़ा रूप 'विहसित' का है,जो मध्यम कोटि के मानवों के लिए है।इसमें होंठ अधिक खुलते हैं और दंतदर्शन भी हो जाता है।जब हँसने के साथ नासिका फूल कर कुप्पा हो जाए और होंठ भी वक्रता लिए हुए हों,तो यह मध्यम प्रकृति के लोगों के लिए 'उपहसित' की स्थिति है।अधम प्रकृति के लोग 'अपहसित' कोटि का हास्य करते हैं;जिसमें उनकी अश्लीलता और ओछेपन का भाव भी झलकने लग जाता है। 'अतिहसित' हास्य का तीव्रतर रूप है, जो अधम कोटि के मनुष्यों में देखा जाता है।यह असभ्यता लिए हुए होता है। इनमें सबसे बड़ा और निकृष्ट रूप 'अट्टहास' का है, जिसमें पूरा शरीर हिलने लगता है और व्यक्ति हो हो हो हो, ही ही ही ही जैसी ध्वनियाँ करते हुए जोर -जोर से हँसता है।

 हास्य के उक्त सात भेदों के बाद आचार्य केशव दास ने हास्य के चार रूप प्रमुखता से व्यक्त किए हैं। धीमी और हल्की मुस्कान को उन्होंने 'मंदहास' का नाम दिया है।मधुर और सुखद हँसी को उन्होंने 'कलहास' कहा है। बहुत तेज अट्टहास को 'अतिहास' की संज्ञा दी है। हास्य के चौथे रूप को 'परिहास' कहा गया है।जो व्यंग्य से भरा हुआ रहता है।

 हास्य के एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार आत्मस्थ, परस्थ,मृदुहास और अट्टहास इसके चार भेद भी किए जाते हैं। जो पात्र और स्वयं को अनुभव होता है,वह 'आत्मस्थ हास्य' है। जो हास्य दूसरों को हँसाता है ,वह 'परस्थ हास्य' है। 'मृदुहास' धीमा और गुप्त होता है। और अंतिम है 'अट्टहास' ,जो मुखर प्रबल और खुलापन लिए हुए होता है।


 कुछ लोगों में दूसरों को हँसाने का विशेष गुण होता है।जिनकी हर बात में हास्य होता है।यह कोई मामूली बात नहीं है।हास्य कवि अपनी कविता या कवितात्मक उक्तियों से दर्शकों और श्रोताओं को लोटपोट कर देते हैं।वे इसी बात की रोटी खाते हैं। कुछ ऐसे भी हास्य अभिनेता हैं कि उनके अपने चेहरे पर हास्य की लकीर भी नहीं और उधर श्रोता लोटपोट हुए जा रहे हैं।किसी को रुलाना जितना आसान है ,उतना हँसाना नहीं। फिर आज के युग में आदमी की हँसी तो महँगाई और रही बची सो लुगाइयों ने अपहृत कर रखी है। कोई हँसे तो कैसे हँसे। कभी- कभी तो हँसे कि फँसे ! आदमी के मष्तिष्क में कुछ ऐसे हार्मोन प्रसर्वित होते हैं ,जो उसे हँसने के लिए प्रेरित करते हैं अथवा हँसने से और ज्यादा आने लगते हैं।एंडोर्फिन,डोपामाइन और सेरोटोनिन ऐसे ही हास्य के कारक हार्मोन हैं , जो अन्य जन्तुओं में नहीं होते। 

 हँसें भी हँसाएँ भी ; किन्तु किसी की हँसी न उड़ाएं।हँसना -हँसाना सकारात्मक भाव हैं ,किंतु दूसरों की उड़ाने पर वे कड़वे कसैले और नकारात्मक हो जाते हैं।आज के युग में हँसी बहुत मँहगी हो गई है। हास्य के लिए हास्य योग की क्रिया का भी सुझाव दिया जाता है।किंतु हँसी नकली नहीं हो सकती। फिर तो खीसें निपोरना भर रह जाएगा।हास्य में स्वाभाविकता और सहजता अनिवार्य है।इसलिए किसी और पर मत हँसें। हँसाये अवश्य।हँसी नहीं कोई नश्य कि नाक में ठूँस ली और हो गया हास्य। मनुष्य के लिए यह अपरिहार्य है अवश्य।आइए हम सब कुछ देर हँसते हैं और अपने फुफ्फुस को हँस -हँस कर मजबूत करते हैं। हास्य है तो हर्ष है, उत्कर्ष है,क्षीण होता हुआ संघर्ष है।दिन रात माह और प्रसन्न पूरा वर्ष है। हास्य है तो जीवन में नहीं कहीं अमर्ष है।

शुभमस्तु ! 

 29.08.2025●1.45 प०मा० 


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बालक [ कुण्डलिया ]

 477/2025


                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

बालक   हैं  संसार  की, इस पीढ़ी के  बीज।

बढ़ते  जो  निज  गेह में,कभी न होते  छीज।।

कभी  न  होते  छीज,निरंतर विकसित  होते।

क्रीड़ा  में   रह  नित्य,  कभी  हैं हँसते - रोते।।

'शुभम्' मातु का नेह,जनक के कुल संचालक।

नई  फसल के  धान,आज  के नन्हे  बालक।।


                         -2-

बालक    हों  जिस   गेह  में, रहती  है  समृद्धि।

खुशियों  की  बरसात हो,होती सुख की वृद्धि।।

होती  सुख   की  वृद्धि,विकसती निर्मल धारा।

शोभित  सूरज  सोम, शून्य  में शुभद  सितारा।।

'शुभम्'  समझ  कर्तव्य,सँभालें संतति पालक।

होता  है  गृह  भव्य, अगर  हों अच्छे   बालक।।


                         -3-

बालक  हों  गुणवान  तो, होता आत्म  विकास।

मात-पिता   का  नाम हो,कुल को आए   रास।।

कुल  को  आए   रास, बाँधते  सब ही   आशा।

होता   प्रबल  उजास, न  रत्ती कम या    माशा।।

'शुभम् ' वीर जो पुत्र ,  बने अरिदल का घालक।

गुण  ही  सबसे  श्रेष्ठ,गुणी हों यदि सब बालक।।


                         -4-

बालक  गेह- विकास  का, सबल श्रेष्ठ  सोपान।

आगे   बढ़तीं  पीढ़ियाँ, मिले कुलों को   मान।।

मिले  कुलों  को   मान, वही हैं भाग्य  विधाता।

बढ़े  पिता   की  शान,जननि को पुत्र   सुहाता।।

'शुभम्'विटप की शाख,सुकोमल कुल संचालक।

जिधर   मोड़   दो डाल,वही बन जाते  बालक।।


                          -5-

बालक  को  वह सीख दें,जो दे उसको  काम।

उज्ज्वल बना भविष्य को,जपे राम या   श्याम।।

जपे   राम  या  श्याम, करे गुरुजन की   सेवा।

हो  जननी का  नाम, पिता निधि मिस्री   मेवा।।

'शुभम्'  चरित  हो चारु,देश का बन संचालक।

जग   में   हो   विख्यात,  जन्म दें ऐसा  बालक।।


शुभमस्तु !


28.08.2025●9.00प०मा०

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गुरुवार, 28 अगस्त 2025

विघ्नेश [ सोरठा ]

 476/2025 



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भालचंद्र  विघ्नेश,  विनती  करता आपसे।

देवों  में  प्रथमेश, शुभम्  पधारो  गेह  मम।।

नमन   करूँ   शत  बार, एकदंत हेरंब  को।

दर्शन  का  उपहार, वक्रतुंड विघ्नेश   का।।


शिवगौरी सुत आप,लंबोदर गणपति सुमुख।

सकल  'शुभम्' के ताप,हे विघ्नेश  नसाइए।।

विनती   बारंबार,  बुद्धिनाथ   से बुद्धि    की।

देना    कृपा  उदार,  करता  हूँ विघ्नेश   जी।।


मूषक  वाहन  आप, दाता हो शुभ सिद्धि के।

मिटा  सकल संताप,आओ  प्रभु विघ्नेश जी।।

विघ्नों  के विघ्नेश, प्रमुख गणाधिप आप हो।

गौरी     मातु   महेश,  आज्ञाकारी पुत्र    हो।।


धूम्रकेतु    विघ्नेश,मिले विनायक  की  कृपा।

कहता जगत गणेश,शिवसुत गौरी सुत शुभम्।।

कपिल शुभम् शुभ नाम,धूम्रकेतु भगवान का।

सफल करें सब काम,विघ्न हरें विघ्नेश मम।।


नाम जपें   सब  भक्त,भालचंद्र भगवान का।

हम  पद में  अनुरक्त, घर आएँ विघ्नेश जी।।

करें    आरती   भक्त,  वक्रतुंड भगवान  की।

अघ न   करें आसक्त, प्रभु विघ्नेश मिटाइए।।


विनती नमन हजार,'शुभम्'  गजानन से करे।

भव  से  कर दें पार,प्रभु विघ्नेश सहाय हों।


शुभमस्तु !


28.08.2025●8.00आ०मा०

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गलियों की रौनक :कुत्ते [ व्यंग्य ]

 475/2025



©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

वास्तव में कुत्ते भेड़ियों के वंशज हैं। 

दुनिया में सबसे पहले पालतू बनाए गए पशुओं में कुत्तों का प्रथम स्थान है।कुछ भेड़िए ऐसे थे जो कम डरपोक हुआ करते थे। वे इंसानी बस्तियों की ओर उन्मुख हुए और इंसानों के साथ हिल मिल गए और उन्हीं के साथ रहने लगे। ये अपनी प्रारंभिक अवस्था में भेड़िए ही थे ,किंतु उनके प्रति अधिक अनुकूल हो जाने के कारण वे उसके पालतू हो गए। इन्हीं भेड़ियों या कहें पालतू भेड़ियों से कुत्तों का विकास हुआ। जर्मनी में पाए गए एक जीवाश्म में चौदह हजार वर्ष पहले कुत्तों का अस्तित्व मिलता है।

पुरा पाषाण युग के गुफा चित्रों में कुत्तों का चित्रण मिला है,जो पचास हजार साल पहले के हैं। कुत्ते के गुणों में बदलाव लाने के लिए चयनात्मक प्रजनन किया गया ,तब कुत्तों की आधुनिक अनेक नस्लों का विकास संभव हुआ। परिणाम यह हुआ कि आज कुत्तों के अनेक रंग और आकार हैं।उनके स्वभावों में विशेष विविधता है। कुत्ते इंसानों के सबसे वफ़ादार साथियों में से एक माने जाते हैं।

आज कुत्ते गाँव व शहरों की गलियों मोहल्लों सड़कों और बाजारों में पाए जाते हैं। वे यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ अपनी रौनक से परिवेश को रंगीन किए हुए हैं। बिना कुत्तों के गली सूनी -सूनी नजर आती हैं। यदि वहाँ  रात अथवा दिन में  कुत्ते भौंकते हुए न मिलें तो वहाँ सन्नाटा पसर जाता है। उनके बिना आदमी भी उदास- उदास दिखाई देता है ।आखिर तो वे उसके आदिकालीन साथी हैं। तो उनके अस्तित्व के बिना वह रह कैसे सकता है !

कुछ संस्कृतियों में कुत्तों को देवी- देवताओं का वाहन भी माना जाता है। हिन्दू धर्म में वे भैरव के वाहन माने जाते हैं। नेपाल देश में तो कुकुर तिहार (त्यौहार) ही मनाया जाता है। यह त्यौहार कुत्तों की पूजा के लिए समर्पित है।जिसमें उन्हें  दही, दूध और अंडों का भोजन कराया जाता है। मान्यता यह है कि कुत्ते यम के संदेश वाहक  हैं  और मृत्यु के बाद वे  अपने स्वामी की रक्षा करते हैं। भारत में कर्नाटक में एक मंदिर भी है ,जिसे नाई देवस्थान के नाम से मान्यता दी गई है।छत्तीसगढ़ के कुकुरदेव के मंदिर में एक स्वामिभक्त कुत्ते की स्मृति में पूजा की जाती है। 

आज कुत्ता सभ्यता और संस्कृति का पर्याप्त विकास हुआ है। परिणाम यह है कि आज कुत्ते केवल गलियों और मोहल्लों की ही रौनक नहीं हैं , वरन अब तो कुत्तों ने बड़े बड़े धनाढ्य सेठों और लालाओं और उनकी ललनाओं को गोद ले रखा है। वे उन्हें खिलाते हैं,उनका मन बहलाते हैं और सुबह शाम उन्हें सड़कों पर टहलाते हैं। आज आदमी कुत्तों का अनुगामी हो गया है,इतने दिन कुत्तों के साथ रहने के बावजूद वह वफ़ादारी का गुण नहीं ला पाया।वह कृतघ्न ही बना रह गया। 'सत्संगति किम न करोति पुंसांम' किन्तु इस आदमी नामक जंतु पर कुत्ते की वफ़ादारी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

कुत्ते ने अपने विकास के आधुनिक चरण में पर्याप्त प्रगति कर ली है। कहा जाता है कि  लाइका नाम की एक कुतिया 1957 में सोवियत मिशन स्पुतनिक 2 पर जाने वाली पहली जीवित प्राणी का अधिकार पाने में सफल रही।उसने पहली बार अंतरिक्ष की यात्रा की।इस प्रकार कुत्तों का विकास निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर है। वह देश दुनिया और गली सड़कों की रौनक है। दुनिया का  एक देश नीदरलैंड ऐसा भी है कि अब वहाँ कोई आवारा कुत्ता नहीं पाया जाता। एक समय ऐसा भी था जब वहाँ पालतू कुत्तों के कारण रेबीज़ की बीमारी अपने उग्रतम संक्रामक रूप में फैल गई थी ,जिसे मानवीय प्रयासों से नियंत्रित किया गया।

शुभमस्तु !

27.08.2025●11.15प०मा०

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बुधवार, 27 अगस्त 2025

काटे -चाटे श्वान के [ व्यंग्य ]

 474/2025


 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 रहिमन ओछे नरन ते,बैर भली नहिं प्रीत।

काटे-चाटे श्वान के, दुहूँ भाँति विपरीत।।

 रहीम के इस नीतिपरक दोहे में कुत्ते को ओछे मनुष्यों का प्रतीक माना गया है।जिस प्रकार एक कुत्ते द्वारा काटना या चाटना, दोनों ही घातक हैं ,उसी तरह ओछे मनुष्यों से बैर करना अथवा प्रेम करना -दोनों ही हानिकारक हैं।किंतु आज के परिवेश में स्थिति बहुत कुछ विपरीत हो गई है।आदमी कुत्ते से भी अधिक घातक हो गया है। आज आदमी से बैर करना अथवा प्रेम करना ;कुछ भी खतरे से खाली नहीं है। कितनी पत्नियाँ ,जो अर्धांगिनी के नाम पर पतिघातिनि बनी हुई हैं। हर चौदह दिन बाद खबर आ जाती है कि किसी एक ने अपने प्रेमी से मिलकर अपने पति को काटकर नीले ड्रम में पैक कर दिया।किसी ने पहाड़ों पर हनीमून मनाने के बहाने उसे परलोक की सैर करवा दी।इन सबसे प्रेरणा लेकर न जाने कितनी ऐसी भी होंगीं जो अपनी योजना को सफलीभूत करने के लिए सुनहरे अवसर की तलाश कर रही होंगीं। 

 काटना और चाटना :ये दोनों विपरीत क्रियाएँ हैं। प्रेम करने वाला कब चाटने के स्थान पर काटने ही लग जाए तो विश्वास और प्रेम का तो विध्वंश ही हो जाए।कुत्ता काटता है तो चाटता भी है।उसका काटना यदि क्रोध है तो चाटना प्रेम है,प्रीति है,लाड़ है,नेह है।कोई चाटते - चाटते ही काट दे, तो कोई किसी का क्यों विश्वास ले और अपना दे।कहीं सास दामाद पर मोहित होती हुई बिल्ली बनी हुई अपनी बेटी का रास्ता काट रही है और दामाद को चाट रही है। कहीं कोई बहन ही अपने प्रेमी के लिए अपने सोदर भाई का कत्ल करवा रही है। कब किसी का चाटना काटने में बदल जाएगा,कुछ भी नहीं कहा जा सकता। 

 कुत्ते वफ़ादारी का प्रमाण होते थे।किंतु आज सब कुछ बदल रहा है।यह सच है कि न आदमी न ही कोई औरत वफादारी के नाम पर इतिहास बना पाई और हालात ऐसे ही रहे तो बना भी नहीं पाएगी।इसलिए किसी नारी या नर से वफ़ा की उम्मीद करना भी बेमानी होगा,निरर्थक होगा।ऐसे में यदि वे चाटते -चाटते काटने भी लगें तो कोई आश्चर्य मत करना। आदमी औरत का एहसान फ़रामोश होना उसका स्वभाव है।वह अपने चाटने के पात्र को कब काट ले या काट दे अथवा कटवा दे ;तो यह कोई अनहोनी बात नहीं होगी।जब यह सब कुछ स्वाभाविक और सहज ही है तो मैं ये पृष्ठ काले क्यों कर रहा हूँ! वह इसलिए कि इस आदमी नामक आदमजात को अपनी आदमियत और वफादारी पर बड़ा गुमान था न ! उसे आईना दिखा रहा हूँ कि कैसे उसकी चाट काट में बदल जाती है। 

 युग बदला है तो आदमी भी बदला है। कुत्ते भी बदल गए हैं।पहले आदमी कुत्तों को पालता था,अब कुत्ते आदमी को पाल रहे हैं। वे उसी के साथ रहते हैं,उसे चाटते हैं और उसका माल चाटते हैं। अब वे स्वामिभक्त हों या न हों;आदमी अवश्य कुत्ताभक्त हो चुका है। अब आदमी नहीं, कुत्ते आदमी को सुबह की सैर कराते हैं। कुत्ता आग- आगे और आदमी पीछे-पीछे। अब आदमी कुत्ते-कुतियों को चाट रहा है। उसे दूध मलीदा खिलाने के लिए उन्हें मना रहा है।आदमी का यह कुत्ता -कुतिया प्रेम उसे प्रेरणा दे रहा है कि यहाँ कोई किसी का नहीं है।जैसे भी चाहो ,मजे लूटो। चाहे वह पत्नी हो या कोई और ;करते रहो जन्नत की सैर।इसी प्रकार नारी के लिए मानक बदले हैं कि जब तक चाट की खुली हाट है ,तब तक ठाठ ही ठाठ है।जिसको चाहे चाट, जो साथ रहे उसे डांट। न बने मामला तो उठा ले छुरी चाकू और देना उसे काट। 

 प्रेरणा शब्द से यह तथ्य की बात निकलती है कि अब आदमी कुत्तों की संगत से कुत्ता बन गया है।इसलिए नैतिकता और सभ्यता की दीवारें गिरा दी गई हैं।कुत्ते भले ही कपड़े पहन लें पर वह तो कपड़ा छोड़ नंगा हो चुका है।क्या नर और क्या नारी ;दोनों में एक ही बीमारी। उनके मन पर नग्नता ने कर ली है सवारी। इसलिए टूट चुकी हैं नीति और नय की चारदीवारी। संगत का असर क्या कुछ नहीं करता। वही इस नए जमाने में इक्कीसवीं सदी में हो रहा है।यह स्वतंत्रता नहीं, स्वेच्छाचार है।ठाठ बाट ही प्रधान है,शेष सब गौण है। पूँछ वाले के सामने बिना पूँछ वाला पूँछ हिला रहा है। कुत्ते के लिए विसर्जन का अपना उसूल है,पर इस आदमी का तो कोई उसूल ही नहीं है।उसके संसर्ग में भी नीति है नैतिकता है,पर आदमी ! राम !राम !!राम!!! उसकी नैतिकता तो घास चाटने नहीं घास चरने गई है।वह जिसे चाटता है ,उसे काटने में भी हिचकिचाता नहीं। 

 शुभमस्तु ! 

 27.08.2025● 1.45प०मा०

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आदमी की कुत्ता-साधना [ व्यंग्य ]

 473/2025

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मेरा देश कुत्ता प्रधान देश है।यहाँ आदमी से अधिक कुत्तों का मान-सम्मान है,ऊँचा स्थान है।कुत्तों की बड़ी ऊँची शान है।आदमी कुत्तों का मेहमान है।आदमी गौड़ है,कुत्ता प्रधान है। मैं केवल कुत्ता -चर्चा ही कर रहा हूँ,किसी आदमी कुत्ते की बात नहीं कह रहा हूँ। आदमी कुत्ता तो इस असली कुत्ते से भी अधिक खतरनाक है।इन कुत्तों की तो बड़ी- सी उभरी -सी नाक है, ये आदमी कुत्ता तो बेनाक है। 

 कोई आदमी कुत्ते नहीं पालता। आज तो बड़े -बड़े घरों और कोठियों में कुत्ते ही आदमी को पाले हुए हैं।देखा नहीं, सुबह साँझ ये कुत्ते आदमी को सड़कों पर घुमाने निकलते हैं।इसी बहाने वे फारिग हो लेते हैं और जहाँ चाहते हैं आदमी को घसीट ले जाते हैं और किलोमीटर के पत्थर पर एक टाँग उठाकर विसर्जन कर आते हैं। है भला किसी आदमी की ताकत कि वह अपने कुत्ता मालिक की इच्छा का दमन कर सके और जिस जंजीर से वह (आदमी) अटका हुआ है उसे रोक सके। देखने में लगता है कि कुत्ता जंजीर से बँधा हुआ है,किंतु वास्तविकता यह है कि कुत्ता नहीं आदमी बँधा हुआ है। यहाँ वही बात सत्य प्रतीत होने लगती है कि जो होता है वह दिखता नहीं है और जो दिखता है,वह होता नहीं है। यहाँ यही यथार्थ है कि जंजीर से कुत्ता नहीं आदमी बँधा हुआ हुआ है।

 आदमी एक कुत्ता भक्त प्राणी है। कुत्ता उसका भगवान है और वह कुत्ते का भक्त है,सेवक है,अनुयायी है,अनुगामी है।आदमी पिछलग्गू है,कुत्ता उसका स्वामी है। आदमी के कुत्तापन और कुत्ते के आदमीपन के अनेक उदाहरण आपको मिल जाएँगे। आदमी कुत्ते का चौबीस घण्टे और बारहों मास का स्थाई सेवक है।वह उसे डनलप के गद्दों में शयन कराता है । उसे नरम और गरम रजाई ओढ़ाता है।लाइफबॉय से नहलाता है। उसे कंघी करता और सुगंधित द्रव्य भी लगाता है।पहले कुत्ते नंगे घूमते थे ।अब कुत्ते कपड़े पहनते हैं और आदमी,औरतें ,और उनके लड़के -लड़कियाँ नंगे घूमते हैं। आज आम आदमी को खाने को दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से मिलती है और उधर उनके सेवक उन्हें दूध रबड़ी,दाल रोटी और पकवानों का भोग लगाते हैं। सच्चे अर्थों में कुत्ता ही आदमी का इष्ट है,इष्टदेव है।उसके लिए प्लेटों में सजे रहते उसकी पसंद के फल सेव हैं।यह उसका नित्य दिनचर्या का नियम है। 

 कौन कहता है कि कुत्ता बेजुबान प्राणी है। उसके जुबान भी है और यथासमय भौंकता भी है।पर आदमी ही उसके समक्ष अनाड़ी है,अशिक्षित है, काला अक्षर भैंस बराबर है।जब वह उसकी भाषा समझता ही नहीं,इसलिए उसे बेजुबान और मूक कह देता है।यह तो किसी कुत्ते क्या कुत्ता जाति का घोर अपमान है। वह तो अच्छा है कि किसी कुत्ते ने आज तक किसी आदमी पर मानहानि का मुकदमा (कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट ) नहीं किया। अन्यथा क्या होता ,आप सोच ही सकते हैं।इसमें भी कुत्ते का निहित स्वार्थ रहा होगा , यदि मानहानि के मुकदमे में आदमी जेल में चला जाता तो उसकी सेवा भक्ति भला कौन करता ?इसलिए कुत्ते ने चुप रहना ही उचित समझा। और वह बराबर आदमी से सेवा ले रहा है। 

 कहते हैं कि जब कुत्ते की कोई खास इच्छा होती है या प्यार उमड़ता है तो वह आदमी के सामने अपनी पूँछ हिलाने लगता है।पर अब तो सब कुछ उलट-पलट गया है ;अब कुत्ते नहीं ,आदमी ही कुत्तों के समक्ष पूँछ हिलाते हुए देखे जा रहे हैं। आदमी कुत्तों के पराश्रित हो गया है। गली मोहल्ले के कुत्तों की छोड़िए,उन्होंने तो अपना स्तर ही गिरा रखा है और जिस- तिस फीमेल कुत्ते के पीछे अपने को बरबाद किए हुए हैं।वे भी बेचारे क्या करें ,उनकी प्राकृतिक माँग उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य कर देती है।

 जहाँ - जहाँ आदमी है, वहाँ -वहाँ कुत्ता है।कुत्ता कुछ नर-नारियों की एक अनिवार्य आवश्यकता है। उनकी श्वान-साधना ईश साधना से भी महान हो गई है। कुछ अकेले या अकेलियों के लिए प्राण हो गई है। वे कुत्ते के बिना जी नहीं सकते। कुछ लोगों ने कुत्ता -चरित्र को भरपूर अंगीकार कर लिया है। अपने जीवन में अच्छी तरह उतार लिया है।इसलिए आदमी रूपी कुत्ते के लिए अब सास बहन और अन्य पवित्र कहे जाने रिश्तों में और कुत्ता- रिश्तों में कोई अंतर नहीं रह गया है। इस मामले में उसने कुत्ता जाति को भी पीछे छोड़ दिया है।यदि विश्वास न हो तो नित्य के अखबार,टीवी समाचार और सोशल मिडिया का संचार देख लीजिए। 

 ये कुत्ता-चर्चा अनंत है। इसका न कहीं आदि है न अंत है। लगता है अब आदमी नहीं,कुत्ता ही सर्वस्व है। कुत्ता दीर्घ है और आदमी ह्रस्व है।गर्दभ हो गया आदमी और कुत्ता आज का अश्व है।कुत्ता आदमी की प्रेरणा है।उसकी चेतना है। उसकी आराधना है। एक हवेली का कुत्ता गली के कुत्ते को गाली दे रहा था ,हट बे आदमी के बच्चे।टुकड़खोर कहीं का।दर -दर ठोकर खाता है ,तब दो बासी बिना चुपड़ी सूखी रोटी पाता है। मुझे देख मुझे, मेरे कितने ठाठ हैं। मेरा व्यक्तित्व ही इतना विराट है कि आदमी देखता मेरी ही बाट है। मैं उसका मालिक हूँ ,वह रहा मेरे होठ चाट है। अब मैं उसके पीछे नहीं, वही है मेरे पीछे। मैं ऊपर हूँ,तो वह बाट जोहता है नीचे। वह कुत्ता भक्ति में इतना अंधा है कि जो मैं चाहता हूँ,सब कुछ कर रहा है स्वनेत्र मींचे। बारह वर्षों के बाद घूरे के भी दिन बदलते हैं ,तो हम कुत्तों के क्यों नहीं बदलेंगे ! आओ तुम भी हमारे साथ नारा लगाओ : भौं sss....

 शुभमस्तु ! 27.08.2025● 10.45 आ०मा० 

 ●●●।

श्वान सेवा सदाबहार [ दोहा ]



 472/2025


        

[संप्रति,सुविधा,साधना,संजीवनी,सदाबहार ]


©शब्दकार

डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


संप्रति  सारे   देश  में, सुलभ श्वान   संगीत।

भों - भों  करते भक्त हैं, कहें  श्वान हैं   मीत।।

पूँछ  हिलाते  श्वान  का, संप्रति शुभ  संकेत।

प्रेम  भाव   जाग्रत  हुआ, भोंक उठे समवेत।।


सुविधा भोगी  श्वान को, मिले न कोई  कष्ट।

जब  चाहें तब भोंक  लें,रहें  न पल को  मष्ट।।

सुविधा श्वानों को यही, नर -नारी को  पाल।

सड़कों  पर  टहला  रहे,यह भी एक मिशाल।।


श्वान - साधना  लीन  हैं,बहु नर -नारी  आज।

डनलप गद्दे  पर  करें, शयन  न  आते   बाज।।

श्रेष्ठ साधना  श्वान की, मात-पिता  को  छोड़।

श्वान दूध   रोटी  चरें,लें   उनसे  मुख     मोड़।।


श्वान - सनेही   आदमी, रहा  न  जन से   नेह।

वे  घर   की   संजीवनी,  शोभित उनका गेह।।

सेवा   में  निज  श्वान की, संजीवनी  अनूप।

घर  की  देवी  को  मिली, पिला रही हैं   सूप।।


श्वानों    को    मिलने लगी, सेवा सदाबहार।

सास - ससुर    भूखे   मरें, पड़े- पड़े बेजार।।

दूध     मलीदामार     हैं,    कूकर सदाबहार ।

मानव  को  रोटी  नहीं,  सूखी भी दो- चार।।


                 एक में सब

संप्रति  सुविधा  साधना, श्वान सभी  संलग्न।

आई     सदाबहार  है, संजीवनी      सुमग्न।।


शुभमस्तु !


26.08.2025●11.45प०मा०

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[10:43 am, 27/8/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

उठा लिया कटि कसकर बीड़ा [ गीत ]

 471/2025



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उठा लिया 

कटि कसकर बीड़ा

आगे-आगे बढ़ने का।



कितनी भी 

कठिनाई आए

निशि-दिन आगे जाना है,

रस्सी पर चढ़

नदी पार कर

 पढ़ने  का प्रण ठाना है,

नित्य नए

इतिहास रचें हम

नया पंथ है  गढ़ने का।


नीले श्वेत 

वेश कर धारण

बस्ता भी लटकाएँगीं

चप्पल पहन

पाँव में अपने 

विद्यालय हम जाएंगीं

उच्च उच्चतम

शिक्षा लेनी

शिखर उच्च है चढ़ने का।


आज बालिका

कल की नारी

अबला नहीं समझना आप

है जुनून

जज़्बा भी भारी

जोश हमारा प्रबल प्रताप

संघर्षों से

हटें न पीछे

नित्य निरंतर अड़ने का।


शुभमस्तु !


26.08.2025●3.15 आ०मा०

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नैतिकता का लगा हुआ पण [ गीतिका ]

 470/2025




©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दिखते  नहीं   शुभद    अब  लक्षण।

नैतिकता    का  लगा   हुआ  पण।।


हिंसक    हुए     देश    दुनिया  के,

एक   नहीं   अनगिनती     रावण।


धन  अर्जन  की     होड़    लगी   है,

नहीं    शेष    है   अब   आकर्षण।


ट्रम्प     समझता      शहंशाह    मैं,

मैं   पहाड़    भारत है     लघु  तृण।


कौन  बचाए     किसको    कितना,

परेशान  है    जग    का   जनगण।


देखें     जिधर   उधर    ही  ज्वाला,

दहक  उठा है  मन  का कण-कण।


'शुभम्'  श्याम  आओ  अवनी  पर,

आवश्यक है    कृष्ण  - अवतरण।


शुभमस्तु !


25.08.2025●3.00आ०मा०

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श्याम आओ अवनी पर [ सजल ]

 469/2025


   


समांत         : अण

पदांत          : अपदांत

मात्राभार      : 16.

मात्रा पतन    : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दिखते  नहीं   शुभद    अब  लक्षण।

नैतिकता    का  लगा   हुआ  पण।।


हिंसक    हुए     देश    दुनिया  के।।

एक   नहीं   अनगिनती     रावण।।


धन  अर्जन  की     होड़    लगी   है।

नहीं    शेष    है   अब   आकर्षण।।


ट्रम्प     समझता      शहंशाह    मैं।

मैं   पहाड़    भारत है    लघु  तृण।।


कौन  बचाए     किसको    कितना।

परेशान  है    जग    का   जनगण।।


देखें     जिधर   उधर    ही  ज्वाला।

दहक  उठा है  मन  का कण-कण।।


'शुभम्'  श्याम  आओ  अवनी  पर।

आवश्यक है    कृष्ण  - अवतरण।।


शुभमस्तु !


25.08.2025●3.00आ०मा०

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भार [चौपाई]

 468/2025


     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भार   गर्भ     का   ढोती    माता।

संतति की   जो   भाग्य    विधाता।।

कितने   कष्ट     रात - दिन    होते।

फिर भी  नहीं  जननि-दृग     रोते।।


चार    सुतों    को   पिता   पालता।

भार       उठाता     कष्ट   सालता।।

चारों  सुत     क्या    भार   उठाते?

एक   पिता    क्या     पाले  जाते??


धरती         माता       धैर्यधारिणी।

सब सुख दात्री    दुःख    वारिणी।।

सबका  भार     उठाए   धरती।

वन    बंजर    उपजाऊ     परती।।


सागर    जग      का   भार  उठाए।

बादल  जल भर-भर   कर    लाए।।

वर्षा  करे     न    प्यास      सताए।

सींचे     फसलें     तपन    मिटाए।।


शिक्षक   पर   कम भार    नहीं  है।

उसके   जैसा     यहाँ  कहीं    है??

वही   शिष्य    का     है    निर्माता।

लिए खड़ा   निज   कर  में  छाता।।


नेता      करते       नाटक     कोरा।

समझें   जन  को   धन का    बोरा।।

भार  नहीं    वे      लेश    उठाते।

बिना  शुल्क    सब    सेवा    पाते।।


'शुभम्'   कर्म   को    भार  न माने।

करने में     करता       न     बहाने।।

मातु    शारदा      का    वर   पाता।

श्रद्धा  से   निज  शीश    झुकाता।।


शुभमस्तु !


24.08.2025●9.30प०मा०

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रविवार, 24 अगस्त 2025

नियत बनाम नियति [अतुकांतिका]

 467/2025


       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नियत और नियति

दोनों में ज्यादा दूरी नहीं

नियत की निर्मिति है

ये नियति,

जैसे हो नियत 

वैसी बने नियति।


नियत गंदी भी

स्वच्छ भी है,

नियत तो

 दर्पण की तरह

साफ दिख जाती है।


बॉडी लैंग्वेज

क्रिया विधि 

अथवा वाणी

सबमें नियत का वास है।


नियत को

पहचानना खास है,

नियत में ही युवती

बहन भाभी है

उसी में माँ है

वही सोच की चाभी है।


नियत पहला कदम है

तो नियति उसकी

मंजिल है,

कौन नहीं जानता कि

अगले की आँख में

नियत बिगड़ी है

या सुघर बनी है!


शुभमस्तु !


24.08.2025●9.45आ०मा०

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सकारात्मक सोच [अतुकान्तिका ]

 466/2025


              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सकारात्मक सोच

नकारात्मक सोच

एक मजबूत

एक पोच,

इधर वेतन

उधर उत्कोच।


जीवन है तो 

समस्याएँ भी हैं

पूर्णिमाएं है तो 

अमावस्याएँ भी हैं,

उजाला और 

अँधेरा सब कुछ है।


जैसे भी देखो

समस्या को

उलझाव लगे तो

कष्टप्रद है,

सकार सोच हो तो

अभीष्टप्रद है।


जी नहीं सकता

मानव समस्या के बिना

वही तो उसके हाथ हैं

वही आगे बढ़ते हुए पाँव हैं।


सोच को सशक्त

सकारात्मक बनाना है,

सफलता की

सीढ़ियों पर

अनवरत चढ़ते जाना है,

ये कोई उपदेश नहीं

सिद्धांत है 

जो हमें अपनाना है।


शुभमस्तु !


24.08.2025●9.15आ०मा०

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व्यस्त रहें:मस्त रहें [अतुकांतिका]

 465/2025


            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


स्वयं में व्यस्तता

पतन से बचाए

यदि  व्यस्त हो अपनी 

प्रगति के लिए,

फिर क्या कहने!


खाली दिमाग़ 

शैतान का घर होता है

जो व्यस्त खोया है

अपने में

उसे खुराफ़ात के लिए

समय कहाँ होता है।


न रहोगे कभी  खाली

न बजाएगा वक्त ताली

कर्म करना ही जीवन है

कर्म ही धर्म यौवन है।


करता है किसी की

बुराइयाँ भी वही

जो होता है 

दिमाग से पैदल

कहीं न कहीं।


अपनी व्यस्तता में ही

छिपी है प्रगति भी तेरी

बुरा देखने वालों में

मिलेगी बुराई की ढेरी।


शुभमस्तु !


24.08.2025●8.45 आ०मा०

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स्वयं बदलाव ही सफलता है [अतुकांतिका]

 464/2025

 

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चले गए कितने

दुनिया को बदलने वाले

कभी यह भी नहीं सोचा

कि स्वयं ही बदल जाएँ ।


कितने उपदेशी

स्वदेशी विदेशी

संत महात्मा कितने

दे- दे कर उपदेश

चलते बने

ग्रीवा में झाँका न गया।


सभी चाहते हैं

सफल हो जायें

सारी दुनिया को

बदल दें

इतने सबल हो जाएँ!


सफलता 

तुम्हारे भीतर है

कहीं बाहर तो नहीं,

सबको चाहते हो

सुधारना 

अपने को बदलने की

कुव्वत भी नहीं।


झाँको मत उधर 

ताको भी नहीं

इधर न उधर,

सफलता पास ही है

तुम्हारे 

अगर ध्यान से 

देखो तो डगर।


शुभमस्तु !


24.08.2025●8.30आ०मा०

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परिश्रम ही सफलता है [अतुकांतिका]

 463/2025


        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


परिश्रम यदि स्वभाव हो

फिर किस चीज का

अभाव हो,

सफलता

 चूम लेगी चरण

यदि कठिन परिश्रम की

नाव हो।


परिजीवी बनकर

कितना जिओगे

एक दिन

मच्छर की तरह

मसल दिए जाओगे।


पसीने की सुगंध

जो लेता है

वही साफल्य के

शिखर छूता है,

यही सत्य है,

अकाट्य तथ्य है।


कामचोर जो कहलाए

बातों से मन बहलाए

बदनामी का एक दाग

लगना ही लगना है,

इससे बचकर 

कहाँ जाना है।


न जोंक बनो

नहीं दंशक मच्छर

कितने दिन चाभोगे

मुफ्त की शक्कर,

अपनी कथनी को

करनी बना डालो,

सफलता तुम्हारे

चरण चूमेगी।


शुभमस्तु !


24.08.2025●8.15आ०मा०

                ●●●

एक संकल्प :बिना विकल्प [अतुकांतिका]



 462/2025


  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भटकाव के लिए

अनेक पगडंडियाँ हैं

रास्ते हैं

कच्ची- पक्की

 सड़कें भी हैं,

पाने के लिए

किन्तु मंजिल अपनी

पर्याप्त है

एक संकल्प 

जो अडिग हो।


करोगे यात्रा तो

बहुत से मिलेंगे

राहगीर तुम्हें,

सभी सलाह देंगे

रास्ते बताएंगे।


भटक नहीं जाना है

उन पगडंडियों पर

अपना लक्ष्य ही

आँख चिड़िया की।


आएंगे प्रलोभन

चमकते दमकते 

तेरी राहों में

पर भटक मत जाना

कहीं किसी 

कामिनी की  बाँहों में।


पाई है उन्होंने

मंजिल अपनी

जो अटके नहीं

न भटके न रुके

न थके

चला चल 

अपने पथ पर

लेश रपटा 

कि नीचे गिरे!


शुभमस्तु !


24.08.2025●8.00आ०मा०

                   ●●●

[8:16 am, 24/8/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

माली [ अतुकांतिका ]

 461/2025


                         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बिना माली का बाग

उजड़ जाता है शीघ्र

चाहिए एक माली

जो देखभाल करे।


आवश्यक है

जीवन में ऐसे ही

पारिवारिक 

बाग का माली

जिसकी रोक-बाँध से

सजी रहती हर डाली।


बीहड़ नहीं है

कोई परिवार

जो भगवान भरोसे हो

उसे चाहिए अहर्निश

देखभाल

पनपने के लिए।


रोक-टोक को 

जो बुरा मानेगा

वह अपनी ही ढपली

अलग बजाएगा

इसलिए माली का

कहना मानें,

अपनी नहीं

जबरन तानें।


व्यवस्था प्रबंधन

सर्वत्र अनिवार्य है

बिना इसके नहीं

सफल गृह कार्य है

माली की मानना

करना ही स्वीकार्य है।


शुभमस्तु !


24.08.2025●7.45आ०मा०

                   ●●●

परिश्रम और परिणाम [अतुकांतिका]

 460/2025


        

©शब्दकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बजाओ घण्टे घड़ियाल

अथवा मुनादी कर दो

लगा दो भाट चारण कितने

अखबारों को भर दो।


कौन सुनता   है   इनकी ध्वनि 

ध्वनियों में ध्वनि है परिश्रम की

छा   जाती   है  चमक जिसकी

अम्बर में ज्यों रवि किरणों सी।


पसीने की बूँद   जब  टपकती है

ये धरा भी महक-महक उठती है

पसीना आँखें ही नहीं कान भी खोले

दुनिया चमत्कार कह उठती है।


 ये रास्ते भी  मंजिल बनेंगे तभी 

जब पिपीलिका की तरह गिरोगे उठोगे

धरा से अम्बर तक का सफर है

चलना ही चलना  ठान रखा है।


आ पसीने में पाटली खुशबू भर दें

जमाने की   ख़ातिर   ऐसा  कर दें

जमाने में हम  रहें  या नहीं भी रहें

इस माटी के देह को सोना कर दें।


शुभमस्तु !


23.08.2025●10.15आ०मा०

                    ●●●

फ़ितरत-ए-इंसान [अतुकांतिका]

 459/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जब  तक  जमीन   पर थे

किसी ने  देखा ही नहीं हमें

उड़ान   जो भरी   अंबर  में

बस हम ही हम नज़र आए।


कोई नहीं देखता कि

 हमने किया क्या है,

किन पथरीली राहों पर चले

 और यहाँ तक  आए।


कितने फफोले पड़े 

मेरे पाँवों के तले 

तब कोई नहीं आया कि

गले आकर के मिले।


आज सबको दिखता है सितारा

ऊँचे गगन की छाती पर

एक अदना-सा जब खास बनता है

दुनिया गलहार लिए  फिरती है।


पूजा मात्र   परिणाम  जाता है

न पसीना न प्रयास की पगडंडी

मौकापरस्त है आदमी सदा से

इसे आँखों के तले दिखता ही नहीं।


शुभमस्तु !


23.08.2025●10.00आ०मा०

                    ●●●

बदलाव की छवि [अतुकांतिका]

 458/2025


       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी किसी का नहीं हुआ

हमेशा बदलते स्वभाव का

अब वह चाहे आदमी हो

या समय ही  क्यों न  हो।


बनानी  पड़ती  है अपनी एक  छवि

विचलित कब  होता है पथ  से रवि

एक पल की भी देरी न कभी जल्दी

उजाले से उसने ये   दुनिया भर दी।


कभी तोला  है  तो  कभी माशा

लगाए भी कोई कब तक आशा

बदलते स्वभाव की  ये चंचलता

छवि का बिम्ब बिगाड़ ही देती है।


व्यक्तित्व को मील का पत्थर बना

सूखी टहनी की तरह मत रह तना

जिंदगी की कोई नजीर बन जाए

सूरज चाँद की तरह ज्योतित हो जा।


हिमाचल  भी एक दिन में नहीं बना

सागर  का   गह्वर  भी  इतना गहरा

बात की कीमत  को  जानना होगा

आदमी आदमित्व का बदल दे चोगा।


शुभमस्तु !


230.8.2025●9.30आ०मा०

                  ●●●

दंशन प्रेमी [अतुकांतिका ]

 457 /2025


                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समस्या का हिस्सा

सामान्यतः कोई नहीं

बनना चाहता, 

हर शख्स समस्या से

बचना ही चाहता।


यह कथन

हर व्यक्ति  के लिए

सही नहीं है,

क्योंकि कुछ ऐसे भी हैं

जो दिमाग का

बना देते दही हैं।


यही करना तो

उनकी फितरत है,

सुलझे हुए को

और उलझाना

उनकी क़ुदरत है।


माँसभोजी को

मांसाहार ही 

आनंद देता है,

समस्या के जनकों को

यही सब सुहाता है।


कोई अन्य देता है

यदि उचित समाधान

उलझाऊओं को

होना पड़ता है परेशान

क्योंकि यह

उनकी प्रकृति के 

विपरीत है,

ऐसे में उनके दिल में

बैठ जाता अचल शीत है।


बिच्छू है 

डंक दंशन स्वभाव है,

जहाँ नहीं हो

वहीं बनाना घाव है,

उनके हृदय में 

बसा ही रहता 

सदा दुर्भाव है।


शुभमस्तु !


23.08.2025● 9.00आ०मा०

                  ●●●

सींग भिड़ंता [ अतुकांतिका ]


456/2025


               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बस दीवाल होनी चाहिए

उनका उद्देश्य पूरा हुआ

उन्हें सब जगह

सींग मारने की जो आदत है!

यह उनकी विशेष हॉबी है ।


उनके सींग 

उनके विशेष हथियार हैं,

वे समझते हैं कि

वे कृष्ण के अवतार हैं,

जबकि असलियत ये है

कि ये उनके मन का बुखार है।


उन्हें अपने सींग की नहीं है

कोई चिंता

उनका उद्देश्य है

फटे में अड़ाना अपनी टाँग

और करना भी फजीता,

वे अक्सर इसी अवसर की

तलाश में रहा करते हैं

जहाँ मिली

 कोई कच्ची पक्की दीवार

सींगों से सलाम करते हैं।


कोई कहता है कि

यह उनका जातीय संस्कार है

और कोई मानता है कि

आनुवंशिक चमत्कार है।



जो भी हो

वे दीवार में अक्सर 

सींग अड़ाया करते हैं,

कभी किसी को मारते हैं

कभी खुद मरते हैं,

पर वक्त आने पर

सींग अड़ाना बन्द 

नहीं करते हैं।


शुभमस्तु !


23.08.2025● 8.30 आ० मा०

                  ●●●

[9:00 am, 23/8/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

शनिवार, 23 अगस्त 2025

सुनहरी मौका [अतुकांतिका]

 455/2025

    

               

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चोर     को   चोरी  करनी हो

डाकू   को डालना  हो  डाका

गबनी   को गबन    करना हो

भगानी हो प्रेयसी  बिना बाधा

सभी को चाहिए सुनहरी मौका।


ये मौका न हरा   हो न   लाल हो

पीला न   नीला न    गुलाब   हो

चाहे ढूंढ़नी हो अच्छी- सी नौकरी

अथवा विवाहार्थी    को  छोकरी

सभी को चाहिए   सुनहरी मौका।


सुनहरी में ही ऐसी क्या बात है

अन्य किसी रंग में क्या घात है

सभी की   एक   ही चाहना है 

एक सुनहरा-सा मौका माँगना है।


सुनहरी  अर्थात सोने के रंग का

सूरज की उगती  हुई तरंग - सा

भला हो या   कोई बुरा  काम हो

सुनहरी  मौके का  बड़ा नाम हो।


रंगों के जगत में सबने एक ही चुना

अपनी पसंद का रंग सुनहरी बना

अन्य सैकड़ों रंगों का बहिष्कार है

सुनहरे मौके का   यह चमत्कार है।


शुभमस्तु !


22.08.2025● 10.00प०मा०

                     ●●●

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

सभ्यता का आच्छादन [अतुकांतिका]

 454/2025

   

         सभ्यता का आच्छादन

                    [अतुकांतिका]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देह और देहंगों को

ढँकना सीख लिया,

सभ्य तो हो गया होगा

पर उस मन को तो

ढँका ही नहीं

जो युग- युग से नंगा है

असभ्य है।


यदि वह भी ढँक जाता

 ये आदमी 

और का और हो पाता,

पर नहीं समझा गया

इतना जरूरी

क्योंकि वही तो खिलाता है

कानों को रस 

आँखों को सर्वश

रसना को मधु रस।


सभ्यता कपड़ों में नहीं

भावना में है,

मन की कामना में है,

कोई किसी कुत्ते  को

असभ्य नहीं कहता !

जबकि वह कोई अधोवस्त्र 

नहीं गहता ,

नग्न ही रहता।


कुछ लोग हैं  जो

पंच वस्त्रों में भी असभ्य हैं,

दिगम्बरी संत या नागा बाबा

बिना वस्त्रों के भी भव्य हैं।


असभ्यता वहाँ है

जहाँ आदमी को

आदमी नहीं

कीड़ा-मकोड़ा समझा जाए !

रूप दर्शन के लिए

पहरा लगाया जाए,

मतों का दान लेकर

उनका मान मर्दन किया जाए,

नेताओं के द्वारा आम आदमी क्या

अधिकारियों को भी

दुत्कारा जाए,

मन्दिरों में देव दर्शन में 

उत्कोच लिया जाए,

वी आई पी दर्शन का

धंधा चलाया जाए।


ये सूट ये सदरी

ये टाई की रबड़ी

किसको दिखाते हो,

नंगे हो असभ्य हो

ये अभिनय 

किसे दिखलाते हो ?


ये सब नकली आच्छादन हैं

जैसे कोई शवाच्छादन  हो

जिसे जलना ही जलना

ये अच्छादन भी उतरना है,

कपड़े असभ्यता की पराकाष्ठा हैं

कुत्ते बिल्लियों से इतर

कुछ भिन्नता का वास्ता हैं


शुभमस्तु !


22.08.2025 ●3.15 प०मा०

                   ●●●

जो होना न चाहे [अतुकांतिका]

 453/2025


          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



कारण के बिना 

कोई कार्य नहीं होता,

न प्रकृति में

न परमात्मा के यहाँ

न मानवों के जहाँ।


पत्ता भी नहीं हिलता

किसी दरख़्त का

काँटा चलता ही रहता है

सदा वक्त का

पर आदमी का अज्ञान

करता है अभिमान

नहीं लेता किंचित संज्ञान।


दोष का आरोपण

सदा ही किसी अन्य पर

चाहे बादल फटे

या फिसल जाए गिर,

पर कारण का मूल तो

रहता किसी के भी सिर।


छेड़ोगे उसे 

जो छिड़ना न चाहे

काटोगे उसे

जो कटना न चाहे

पाटोगे  उसे

जो पटना न चाहे

फिर तो होगा भी वही

जो होना न चाहे।


धरती पर्वत सागर सरिता

क्या कुछ नहीं जो प्रदूषित 

किसके लिए था

क्या कुछ कर दिया

अपनी विलासिता से

अंदर तक भर दिया,

अब परिणाम भी

तुम्हारे सामने है,

पर इस आदमी को

कोई समझा नहीं सकता

गलत पटरी से

सही पर चला नहीं सकता।


शुभमस्तु !


22.08.2025● 2.45 प०मा०

                   ●●●

सब एक हो जाओ [अतुकांतिका]



452/2025


     

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

       


जब पढ़ना था

तब पढ़ा नहीं,

जब शिखर पर 

चढ़ना था

तब चढ़ा नहीं,

अब छलाँग लगाकर

मंजिल हथियाने की

योजना है ,

 इसके लिए भी 

भला क्या सोचना है?


जब कुछ भी न कर सको

नेता के लबादे में जा घुसो

जहाँ न जाने की हो अनुमति

गेटकीपर को मारो दो धक्का

और जबरन ही जा ठुसो !


कौन  पूछता है 

पढ़ाई -लिखाई

कोरी हेकड़ी ही

सब जगह काम आई!

टेढ़ी करो अंगुलियाँ अपनी

चमकाओ जूते के बल

अपनी ठकुराई।


नेता जी को 

आई ए एस सलाम बजाता है

उसे देखते ही

कुर्सी छोड़ खड़ा हो जाता है

यहाँ  हर तरह की गुंडई का 

फार्मूला काम आता है।


बिना पढ़े- लिखों से

हर नेता चुना जाता है,

पढा- लिखा तो मशीन है

वोट डलवाता है,

बताइए पढ़ाई- लिखाई का गुण

किस काम आता है?


जितनी बार चुने जाओ

हर बार नई पेंशन पाओ

जब स्वयं संसद में बैठ जाओ

तो  नौकरीपेशाओं की

पेंशन को बंद करवाओ,

अपना वेतन बढ़वाने के लिए

गिद्ध कौवे चील और

 गीदड़ एक हो जाओ।


यही लोकतंत्र की

परिभाषा है,

यहाँ कोई हंस नहीं

मानव हंताओं का

मेला है तमाशा है,

जो जितना लूट सके

लूट लो,

इधर रहो या उधर

कभी तुम्हारी तो

कल हमारी है,

यह कुर्सी

 खाली तो नहीं रहनी,

यह तो बेचारी है !


शुभमस्तु !


22.08.2025● 9.30 आ०मा०

                 ●●●

[2:43 pm, 22/8/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

खिलौना [ अतुकांतिका ]

 451/2025


                    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खेल रहे हैं

सभी खेल की तरह

जिंदगी को,

खेल ही खेल में

कब खिलौना 

बन जाओगे

कोई पता नहीं।


तमाशा   देखते- देखते

कब तमाशा बन जाओ

क्या किसी को यह ज्ञात है

कब वसंत की बहारों में

होने लगे बरसात है, 

किसी को नहीं पता !


तू विधाता के हाथों में

एक अनगढ़ मिट्टी का

बोदा - सा   लोंदा  है,

उसे ही बनानी है मूर्ति

क्या कभी ये सोचा है?


कभी गधा तू कभी घोड़ा है

विधि की तूलिका ने 

हाथ किस तरफ मोड़ा है

कभी मच्छर है डांस है

कभी द्विपद आदमी है,

किसी न किसी मूर्ति में ढले

यह हर जीवार्थ लाजमी है।


खिलौना है विधि के हाथ का

फिर भी इतराता है !

ऐंठकर चलता है 

कभी सतराता है!

अपनी नियति का तुझे

कुछ भी नहीं है पता,

इसलिए बेहतर है तेरे लिए

यहाँ कभी किसी को न सता।

कट ही जाना है कभी न कभी

ऐ खिलौने तेरा भी पत्ता।


शुभमस्तु !


22.08.2025● 8.30 आ०मा०

                 ●●●

महिमा [ कुण्डलिया ]

 450/2025


                


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

महिमा    होती    कर्म   की, करे कर्म जो   व्यक्ति।

ज्योति  न  छिपती भानु की,प्रसरित जग में शक्ति।।

प्रसरित  जग  में शक्ति, तमस मिट जाए    सारा।

रहें      न   शेष   उलूक, न  जुगनू चमके    तारा।।

'शुभम्'   सिद्धियाँ  आठ, मिलेंगी अणिमा गरिमा।

मिले    सभी   का   साथ, बढ़ेगी जग  में महिमा।।


                         -2-

महिमा      भारतवर्ष    की, फैली  है  चहुँ   ओर।

गुरु   है   सारे   विश्व  का,  सुखद सुहाना  भोर।।

सुखद   सुहाना  भोर, कनक की चिड़िया  जैसा।

समझ    नहीं   कमजोर, नहीं कुछ ऐसा    वैसा।।

'शुभम्' राम - आदर्श, श्याम की श्यामल प्रतिमा।

बढ़ा    रही   उत्कर्ष, देश   की उज्ज्वल  महिमा।।


                           -3-

महिमा   कम  करना नहीं, मात-पिता  की  लेश।

धर्म  कर्म  में    श्रेष्ठ    हो, करना  ज्ञान   निवेश।।

करना   ज्ञान  निवेश,  उच्च  शिक्षा कर   धारण।

पाप  नहीं   हों  शेष,  करें  अघ ओघ   निवारण।।

'शुभम्' उच्च रख नाक,सबल संतति की तनिमा।

बना   रहे   विश्वास, अमर  माँ पितु की महिमा।।


                         -4-

महिमा    पाँचों  तत्त्व  की, जगती  में   विख्यात।

शुल्क   बिना  मिलते  सभी,अनल वायु  हे तात।।

अनल वायु  हे  तात, धरणि  जल  ये  नभ नीला।

करें     नहीं   बरबाद,  आप  या   गेह   क़बीला।।

'शुभम्'   सदा   उपयोग,घटे  क्यों इनकी   गरिमा।

सकल   सृष्टि  का  मूल, पंच तत्त्वों की  महिमा।।


                         -5-

महिमा   शिक्षा  ज्ञान  की, सदा  रही  अव्यक्त।

जिसने  जाना  प्रगति का, ये सोपान   सशक्त।।

ये      सोपान   सशक्त,  बने  वे  महा    धुरंधर।

पाया    आसन    उच्च,  शोभते  बनें     पुरंदर।।

'शुभम्' न  करना  नष्ट, बनाए रखना     गरिमा।

शिक्षा   करे  विकास,  बढ़ाए जन की   महिमा।।


शुभमस्तु !


21.08.2025 ● 8.45प०मा०

                     ●●●

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

आदमी में यदि डाह न होती [अतुकांतिका ]

 449/2025


    


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी में आदमी के प्रति

यदि डाह न होती

तो रक्त मांस के दिलों में

पत्थरों की सड़क नहीं होती।


टंगड़ी मारने का

हुनर काम नहीं आता

टाँग मारते समय

थोड़ा तो शर्माता

लजाता 

आँखें चुराता!


पर क्या करें

आँखें झूठ नहीं बोलतीं

चेहरे की लिपि

हर भेद को खोलती।


बिना डाह के

आदमी देवता हो जाता

पर उसे तो 

राक्षस होने में ही

विषेशानंद आता

इस सुअवसर को

आदमी क्यों छोड़ पाता!


मत छोड़ना रे डाह

भूल से भी हे मानव !

हो गया अगर कहीं तू

तो बनेगा देवता का ढब

तू मनुष्य है

मनुष्य ही बना रह

सत्त्व की पगडंडियों पर

भूल से भी न बह।


शुभमस्तु !


21.08.2025●4.30 प०मा०

                 ●●●

दवा -दारू [ अतुकांतिका ]

 448/2025


               

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी-कभी 

वर्जन भी

सर्जन बन जाता है,

जैसे दवा -दारू में

दवा के साथ दारू।


यह एक सानुप्रसिक

तुक्कड़ भर है,

वरना दवा के साथ

दारू का क्या काम,

कोई संगति नहीं।


दवा तो ठीक 

पर दारू का क्या!

वह तो चिकित्सा साधनों

का इत्यादि है,

यहाँ दवा में नहीं

किसी दारू का स्वाद है।


गेहूँ के साथ

घुन भी पिस जाता है,

वैसे ही दवा के साथ

दारू का नाम 

आ जाता है,

आदमी को 

दारू से भी तो

विशेष लगाव है।


कॉफी में कॉकरोच का

स्वाद नहीं आता,

वैसे ही दवा के साथ

दारू का विचित्र नाता,

आदमी है

आदमी ही तो

शब्द को तानता

विस्तृत फैलाता!

यह साहित्य है

साहित्य भी तो

शब्दों की खेती करता

भंडार भर लाता।


शुभमस्तु !


21.08.2025 ● 1.45 प०मा०

                   ●●●

मैं दर्पण हूँ! [अतुकांतिका]

 447/2025


               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


यदि मैं न होता

बहुत कुछ

बदला हुआ होता,

शांत सरोवर के सहारे

खड़ी रहतीं

वे अपने रूप को सँवारे

जुल्फ़ों के रंग काले

कैसे सुलझाएं

कैसे  गुहाएँ।


कटोरे में भरे हुए तेल

कर रहा होता आदमी खेल

रूप को निहारता

मन ही मन रीझता 

सिहाता 

रूप की चाँदनी

निहारता बुहारता।


मेरे अभाव का विकल्प

खोजना ही पड़ता

मेरे बिना भी भला

काम कहाँ चलता!

मेरे अस्तिव से

आदमी औरत को

मिली है

बड़ी ही सफ़लता।


रंग हो या रूप हो

चाल अथवा ढाल

सबको दिखाने के लिए

सनद्ध हूँ हर क्षण हर काल

फिर भी कोई अहं नहीं

अभिमान नहीं

आज तो मैं

मिल ही जाता हूँ

हर कहीं,

कभी नहीं करता

नहीं-नहीं।


मैं एक दर्पण हूँ

किंतु पणता से 

एकदम विमुख

विरक्त,

सच-सच दिखलाने के लिए

सदा ही आसक्त,

कोई बुरा माने

या माने भला,

सीखी नहीं है मैंने

भुलावे की

क्रीम पाउडरी कला।


शुभमस्तु !


21.08.2025● 12.45 प०मा०

                 ●●●

दृष्टि का कोण [अतुकांतिका]

 446/2025


              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अनुभूत है ये

कि दृष्टि में कभी

ऋजुता नहीं होती,

वह सदा 

कोण से ही

जागती सोती।


इसीलिए 

दृष्टिकोण होता है,

कोण की 

अनिवार्यता है वहाँ

सरलता का

कोई काम नहीं।


कोई भी कोण

न्यून कोण

अधिकन कोण

सम कोण

विषम कोण

प्रतिवर्ती कोण

हो सकता है,

उसे ऋजु 

करने के लिए

ऋजुता लानी पड़ती है।


प्रत्येक कोण की

अपनी-अपनी डिग्री है,

कोण बदलने से ही

बात बनी है

 बात बिगड़ी भी है।


कोई भी कोण

किसी से होड़

नहीं कर सकता,

क्योंकि हर कोण का

अपना ही मोड़ है

अपना ही मोड है

यही तो कोणों का

जटिल भेद है।


शुभमस्तु !


21.08.2025● 11.45 आ०मा०

                    ●●●

बाबली बनाम बाबरी [अतुकांतिका]

 445/2025


          


©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जब आदमी 

बाबरा हो सकता है

तो वे बाबरी

क्यों सम्भव नहीं हैं !

संभावना थोड़ी नहीं

पूरी-पूरी है।


पहले समय में

किलों  में

जमीन में

बाबलियाँ होती थीं

आज उनका 

इतिहास बता रहा है।


आज घर-घर में

बाबलियाँ न सही,

बाबरियों की भरमार है,

वे सड़क पर

पहाड़ों पर

नदी की धार में

दुस्साहसिक

रीलें बनाती

दिख जाएंगी।


बाबली में 

सीढ़ियों से

नीचे जाना पड़ता था,

बाबरी क्या 

चमत्कार कर दे

कुछ पता नहीं !

उसे सीढ़ी नहीं चाहिए

सीधी उड़ान 

जो भरनी है,

आत्म प्रदर्शन की

माँग पूर्ण करनी है,

समय -समय की

बात है।


शुभमस्तु !


21.08.2025● 11.15 आ०मा०

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बुधवार, 20 अगस्त 2025

सौरभ-सी शुचि कीर्ति [ दोहा ]

 444/2025

    

       

[खंजन,सौरभ,दुकूल,जीवनदान,

समर्थ ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत  स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

खंजन  जैसे   नेत्र   हैं, अधर रसीले   लाल।

जो देखे  वह रीझता,गजगामिनि तव   चाल।।       

दिखते खंजन  मेड़ पर,फुदक रहे  अनिकेत।

चंचल नटखट नयन की,पता न गति का हेत।।


पाटल   लहके   बाग  में, सौरभ उड़े   अपार।

किया परस  ज्यों हाथ  ने, मन को लिया उबार।। 

सौरभ-सी शुचि  कीर्ति का,जग में  है  विस्तार।

महामना    मानव   वही,  करे  जगत उपकार।।


ओढ़े    खड़ी दुकूल को, पाटल कलिका  धीर।

अवगुंठन  निज  खोलती, होती अरुण  अबीर।।

मर्यादा    का    रूप  है,  मुख  पर पड़ा  दुकूल।

शर्माती   कलिका   खड़ी, बनी नहीं है     फूल।।


पर   उपकारी   देव  सम, करता जीवनदान।

नहीं   जगत में  एक भी,उस नर -सा  उपमान।।

रक्तदान    करके    करें,   बहुत लोग  उपकार।

जाग्रत   जीवनदान    ये,मानव का    उपहार।।


प्रभु   समर्थ   ऐसा  करें, करें देश   की  भक्ति।

जन-जन की सेवा सदा,करे'शुभम्' निज शक्ति।।

अभिनेता      धनवान   भी, होते  हुए   समर्थ।

नहीं  देश -  सेवा  करें,फिर   धन का क्या अर्थ।।


                 एक में सब

सौरभ खंजन- कीर्ति का,ओढ़े नहीं  दुकूल।

है समर्थ  वह आप में, जीवनदान     समूल।।


शुभमस्तु !


20.08.2025●4.00आ०मा०

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किस चिंता में खोई हो [ गीत ]

 443/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दृष्टि शून्य की ओर लगी है

किस चिंता में खोई हो।


थामे एक बगल में घट को

किसने यों मजबूर किया

अपनापा खो गया तुम्हारा

हे नारी क्यों दुखी हिया

लगता है सारी रातों तुम

भर-भर  आँसू रोई  हो।


पनघट पर  जाते -जाते यों

किसने है ये दुख भेजा

रिक्त घड़ा लगता  मिट्टी का

चुभा हुआ उर में नेजा

आँखों से भी नींद दूर है

नहीं रात भर सोई हो।


जीवन चिंताओं से  भारी

उनका बोझ   उठाना   है

करने भी हैं काम सभी ये

सुख-दुख सभी निभाना है

हो कृशकाय 'शुभम्' हे रमणी

सश्रम स्वेद  भिगोई  हो।


शुभमस्तु !


19.08.2025● 2.15 आ०मा० (रात्रि)

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सोमवार, 18 अगस्त 2025

भाट-से जिनके किले हैं [ नवगीत ]

 442/2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भाट  - से 

जिनके किले हैं।



शेर - से 

वे कम नहीं हैं

गीदड़ों की

दम नहीं है

सिर उठाए

वे चले हैं।


चार आगे

चार पीछे

बगल में कुछ

उन्हें भींचे

जब मिले

ऐसे मिले हैं।


जब दहाड़ें

सिंह जैसे

हैं हृदय के

संग वैसे

छलते सदा

किसने छले हैं?


शुभमस्तु !


18.08.2025● 3.00 प०मा०

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कृष्ण कन्हैया [ चौपाई ]


441/2025


               

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कृष्ण    कन्हैया     वेणु     बजैया।

नंद यशोमति    की   छवि    छैया।।

जन्म अष्टमी  का     दिन   आया।

घर-घर   में    शुभ  पर्व   मनाया।।


राधा   के   प्रिय    कृष्ण   कन्हैया।

रँभा   रही     है    कजरी     गैया।

कब  वन  में    तुम   ले   जाओगे।

माँ       यशुदा    को     हर्षाओगे।।


माखन   की   तुम   करते   चोरी।

फिर  भी   करें     प्रतीक्षा   गोरी।।

डाँट   लगा     देती    है     मैया।

नटखट  प्यारे   कृष्ण    कन्हैया।।


सखा    मनसुखा  और  सुदामा।

याद करें   गोपी    ब्रज    वामा।।

भगिनि    सुभद्रा   के  प्रिय भैया।

फिर-फिर आओ  कृष्ण कन्हैया।।


लीलाधारी       दानव        हंता।

करते      मानव    सेवा    संता।।

पार     लगाते    हैं     प्रभु   नैया।

हुए  धन्य  हम   कृष्ण    कन्हैया।।


ले  अवतार    धन्य   माँ   कीन्ही।

मातु    देवकी   कृपा    अचीन्ही।

बलदाऊ      के      छोटे    भैया।

वासुदेव   प्रभु   कृष्ण   कन्हैया।।


'शुभम्'  भूमि  ब्रज की  जन्माया।

कृपा   तुम्हारी     ममता    छाया।।

लेतीं     माता     नित्य     बलैया।

कृपा करो    हे कृष्ण     कन्हैया।।


शुभमस्तु !


18.08.2025●2.00प०मा०

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जड़ ही होते तार [ नवगीत ]

 440/2025


           


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


विद्युत की धारा

से निर्धन

जड़ ही होते तार।


प्राण वही है

वही आत्मा

जीवन का आधार

पल में प्राण

पलों में खोए

अपना वह संसार

खेल क्षणों का

सारा जीवन

एक वही है सार।


जितनी धार

देह में बहती

उतना मिलता जीवन

अवधि सुनिश्चित

एक प्राण की

ज्यों कपड़े की सीवन

कब तक

नाव चलानी जग में

कब करना भव पार।


कौन जानता

धारावधि को

करे नियंत्रण और

कोई कहे

विधाता उसको

जीवन का सिरमौर

पुनः यहीं पर

आना फिर से

त्याग सभी घर-बार।


शुभमस्तु !


18.08.2025●12.00 मध्याह्न

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बड़े भाग्य से मिले बुढ़ापा [ नवगीत ]

 439/2025


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

  

बड़े भाग्य से

तप में तापा

मिले बुढ़ापा।


शैशव में 

तू बना खिलौना

घर भर खेला

यौवन जैसे

एक बिलौना

सबने झेला

गिरे दाँत

है शुष्क आँत

क्या करे बुढ़ापा !


कुछ सुख बीते

नव सुख आए

बूढ़ा जाने

जो भाते थे

वे अनभाए

मिलते ताने

मिल रही उपेक्षा

यही सुशिक्षा

क्या गज़ब बुढ़ापा!


 पिछले बिचले

अनुभव मीठे

कड़ुए खट्टे

लगते मधुरिम

गोरस घी-से

सत के सत्ते

अज्ञान मिटाया

तमस हटाया

क्या सुखद बुढ़ापा!


शुभमस्तु !


18.08.2025● 11.00आ०मा०

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वे जनता नहीं [ नवगीत ]

 438/2025

     

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वे जनता नहीं

सदा रहते वे

जनार्दन हैं।


उतरना नहीं

 आता उन्हें

ऊपर  से नीचे

चलना नहीं 

सीखा कभी

किसी के पीछे

आगे-आगे 

चलना है

करना बस मर्दन है।


दिया नहीं

उजाला कभी

लिया ही लिया है

पिलाया नहीं

बिंदु एक

पिया ही पिया है

सृजन नहीं

जाना कभी

किया बस अर्जन है।


आम नहीं

कह देना 

रहे  सदा खास हैं

चुसने का

काम नहीं

चूसें यही   रास  है

टकसाल 

अपनी ही

नोटागार का सृजन है।


शुभमस्तु !


18.08.2025● 10.आ०मा०

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ज्योति संग ज्यों जले दिया [ गीतिका ]

 437/2025


      



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फल   मिलता  जो   कर्म   किया  है।

ज्योति   संग   ज्यों  जले दिया  है।।


यों   तो   सब   ही   जीते   जीवन,

पर उपकारी      सदा    जिया   है।


अपना   रंग      सोच    दिखलाए,

जिसका  निर्मल  सबल   हिया है।


आजीवन  जो     साथ    निभाए।,

सत्य  अर्थ    में    वही   तिया  है।


पति-पत्नी    का   युगल   रूप  है,

पत्नी  पति की   सबल   चिया है।


राम  कहीं   हों    महल-वनों     में,

उर  में    उनके   सदा    सिया  है।


लव कुश  'शुभम्'   श्रेष्ठ  संतति हैं,

श्रेष्ठ   कर्म    के   संग    क्रिया   है।


शुभमस्तु !


18.08.2025● 6.45 आ०मा०

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श्रेष्ठ कर्म के संग क्रिया [ सजल ]

 436/2025


    


समांत        : इया

पदांत         :  है

मात्राभार     :  16.

मात्रा पतन   : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फल   मिलता  जो   कर्म   किया  है।

ज्योति   संग   ज्यों  जले दिया  है।।


यों   तो   सब   ही   जीते   जीवन।

पर उपकारी      सदा    जिया   है।।


अपना   रंग      सोच    दिखलाए।

जिसका  निर्मल  सबल   हिया है।।


आजीवन  जो     साथ    निभाए।

सत्य  अर्थ    में    वही   तिया  है।।


पति-पत्नी    का   युगल   रूप  है।

पत्नी  पति की   सबल   चिया है।।


राम  कहीं   हों    महल-वनों     में।

उर  में    उनके   सदा    सिया  है।।


लव कुश  'शुभम्'   श्रेष्ठ  संतति हैं।

श्रेष्ठ   कर्म    के   संग    क्रिया   है।।


शुभमस्तु !


18.08.2025● 6.45 आ०मा०

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शनिवार, 16 अगस्त 2025

सच सुना जाता नहीं है [ नवगीत ]

 435/2025

   

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सत्य कानों से 

सुना जाता नहीं है।


प्रिय लगे

सबको प्रशंसा

झूठ हो तो और मीठी

सत्य में है

कटु करेला

बात की भी सार सीठी

चुन रहे सब

झूठ को ही

सच चुना जाता नहीं है।


झूठ उड़ता 

यान में नभ

सत्य के पग में फफोले

झूठ ओढ़े

मखमली पट

सत्य के तन पर झिंगोले

झूठ मुस्काता

सुमन-सा 

सच बुना जाता नहीं है।


सिद्ध करना

सत्य को ही

है कठिन दुर्लभ बड़ा ही

झूठ को

है मान्यता हर

हो भले अघ का घड़ा ही

सत्य की है

हार जग में

झूठ मर जाता नहीं है।


शुभमस्तु !


16.08.2025●1.45प०मा०

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शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

भारत देश महान [ कुण्डलिया ]

 434/2025


             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

गंगा   यमुना   नित   बहें,संग सरस्वति   धार।

पावन  यह   धरती  करें,सरसाएँ  बहु    प्यार।।

सरसाएँ   बहु  प्यार, हिमाचल  रक्षक   प्रहरी।

लेता   हमें  उबार,  सभ्यता  संस्कृति   गहरी।।

'शुभम्' नमन दिन-रात,रहे हर जन-जन  चंगा।

भारत  देश  महान,  बहें  सुरसरि नित   गंगा।।


                         -2-

आतीं -जातीं     देश   में, षड ऋतुएँ हर    साल।

पावस कभी  वसंत है, शरद  शिशिर की   ताल।।

शरद   शिशिर   की   ताल,ग्रीष्म हेमंत   मनोहर।

नर्तित    मोर   मराल,   देश  की सरित   महीधर।।

'शुभम्' सुखद शुचि प्रात,कली कोमल   मुस्कातीं।

भारत   देश     महान,  सभी   ऋतु आतीं-जातीं।।


                         -3-

धरती   नदियाँ  बेल तरु,गिरि सागर खग  ढोर।

जन-जन  से  अति प्यार है,बरसें घन  पुरजोर।।

बरसें     घन    पुरजोर, करें  कलरव  सरिताएँ।

पंकज    भरे     तड़ाग,   महकती  हैं  शुभताएँ।।

'शुभम्'  देश  की शान,  लहर  झंडे की  भरती।

भारत    देश   महान, स्वर्ग-सी पावन   धरती।।


                         -4-

आजादी    हमको   मिली, भाग  गए  अंग्रेज।

सुख  की   साँसें  ले रहे, सोते सुख की  सेज।।

सोते   सुख  की सेज,  सकल  ये भारतवासी।

करते      स्वेच्छाचार,   इसी  से  हमें  उदासी।।

'शुभम्'    यही   संदेश,  यही  है नेक  मुनादी।

भारत    देश   महान,   बचाएँ   हम आजादी।।


                         -5-

मनमानी    करना    नहीं,  देश  भले  आजाद।

जिनके  तप  बलिदान  से,  हुए करें  भी  याद।

हुए    करें    भी   याद,  फहरता कहे    तिरंगा।

लहराता    शुभ    सिंधु, पावनी बहती   गङ्गा।।

'शुभम्'   त्याग  का पेड़,फला है वही  निशानी।

भारत    देश  महान,   करें  मत हम मनमानी।।

शुभमस्तु !


14.08.2025●10.45 प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...