शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

खिलौना [ अतुकांतिका ]

 451/2025


                    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खेल रहे हैं

सभी खेल की तरह

जिंदगी को,

खेल ही खेल में

कब खिलौना 

बन जाओगे

कोई पता नहीं।


तमाशा   देखते- देखते

कब तमाशा बन जाओ

क्या किसी को यह ज्ञात है

कब वसंत की बहारों में

होने लगे बरसात है, 

किसी को नहीं पता !


तू विधाता के हाथों में

एक अनगढ़ मिट्टी का

बोदा - सा   लोंदा  है,

उसे ही बनानी है मूर्ति

क्या कभी ये सोचा है?


कभी गधा तू कभी घोड़ा है

विधि की तूलिका ने 

हाथ किस तरफ मोड़ा है

कभी मच्छर है डांस है

कभी द्विपद आदमी है,

किसी न किसी मूर्ति में ढले

यह हर जीवार्थ लाजमी है।


खिलौना है विधि के हाथ का

फिर भी इतराता है !

ऐंठकर चलता है 

कभी सतराता है!

अपनी नियति का तुझे

कुछ भी नहीं है पता,

इसलिए बेहतर है तेरे लिए

यहाँ कभी किसी को न सता।

कट ही जाना है कभी न कभी

ऐ खिलौने तेरा भी पत्ता।


शुभमस्तु !


22.08.2025● 8.30 आ०मा०

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