390/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
पशु ,पक्षियों,कीट ,पतंगों,सरीसृपों और जलचरों की तरह से ही मनुष्य भी एक जंतु है।इन्ही की तरह मनुष्य को भी स्वर्ग रास नहीं आता। उसे स्वर्ग से एलर्जी है।पशु -पक्षी आदि तो अपने विविध कर्म कारणों से नरक प्रिय हैं,किन्तु ये मनुष्य भी कुछ अलग कारणों से नरक प्रियता में सर्वोपरि है।इन सभी जंतुओं की अपनी विशेष प्रजातियाँ हैं,उसी प्रकार मनुष्य भी एक प्रजाति है ।मनुष्य मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करने के लिए इसने जाति की ईजाद की है। यही कारण है कि वह नरक प्रियता का प्रबल पक्षधर ही नहीं, उसी में अति प्रसन्न है।
मनुष्य सृष्टि का सर्वाधिक स्वार्थी और चालाक जंतु है। वह अपने स्वार्थ के लिए अपने को मनुष्य प्रजाति के अंतर्गत आगणित करता है ,किन्तु सर्वाधिक सुख उसे जाति से ही प्राप्त होता है।इसीलिए मनुष्यों में जातिवाद एक अति प्रिय अवधारणा है। उसे एकता और प्रेम से कोई लगाव नहीं है, इसलिए आदमी आदमी में विभेद पैदा करने के लिए जातियों के विभ्रम में जीता- मरता है। उसे टुकड़े -टुकड़े होकर जीना पसंद है। इसलिए कहीं रंग भेद तो कहीं कर्म भेद के आवरण में जातियों का आचरण ओढ़ लिया है।
जब मनुष्य का पेट भरा होता है ,तो अन्य वर्णों को दुर्दुराता है।जब भूख सताती है तो कहीं भी किसी ठेले या होटल या ढाबे पर खा लेता है। वहाँ पर जाकर वह अपनी जाति को भी भूल जाता है। यही कारण है कि होटल या ढाबे या ठेले जाति आधारित नहीं होते।वे सबके लिए खुले हैं।क्योंकि पैसा कमाना है,धंधा करना है। उसके जाति आधारित हॉस्पिटल भी नहीं होते। वह स्वार्थी है,इसलिए जब जान पर बन आती है तो कहीं भी इलाज करवा लेने में परहेज नहीं करता। शादी अपनी जाति में ही करेगा ,परंतु खून चढ़वाने में न मरीज को आपत्ति है और न घर वालों को।वह किसी का भी हो सकता है ,बस गधे घोड़े या कुत्ते बिल्ली का नहीं होना चाहिए। यदि इनके रक्त ग्रुप भी सूट कर जाते तो आदमी गधे को भी बाप बंनाने में हिचकिचाता नहीं। पर क्या किया जाए ,चिकित्सा शास्त्र इसकी अनुमति उसे नहीं देता। यही स्थिति उसके आवागमन के वाहनों या सड़कों की है। ऐसा नहीं है कि अमुक सड़क किसी एक जाति वाले लोगों की हो और उस पर केवल वही चलेंगे।बस, ट्रेन, वायुयान, जलीय जहाज सभी में जातिवाद को भुला दिया जाता है,क्योंकि वहाँ आदमी की गरज है। वहाँ ऐसा नहीं है कि इस ट्रेन या बस में केवल ठाकुर या बनिये ही यात्रा करेंगे।इसलिए बसों पर लोग जाति का नाम भले लिखवा लें किन्तु उन्हें कमाई करनी है,इसलिए किसी को ले जाने में कोई आपत्ति नहीं है।यही कारण है कि गुप्ता जी की बस पंडित जी चला रहे हैं। अथवा पंडित जी की बस सरदार जी हांक रहे हैं। इस स्तर पर पूर्णतः समाजवाद है। आखिर कमाई भी करनी है। पैसा आना चाहिए ,किसी से भी आए ।इसलिए यहाँ जातिवाद कैंसल।सारी रेलगाड़ियाँ किसी एक जाति वाले की नहीं और नहीं उनमें जाति विशेष के लोग यात्रा ही करते हैं। वे सबके लिए हैं। करोड़ों अरबों खरबों कमाने जो हैं।
ये जाति प्रियता किसी अँगूठा टेक की खोज नहीं है। यह प्रबुद्ध और पढ़े लिखों के बीच से आई हुई मखमली दीवार है। जो आदमी आदमी के बीच खड़ी की हुई है। आदमी को सुख शांति नागवार गुजरती है,इसलिए जातियों में बँटकर खंडन-खांड को खून्दता है। जाति का कीड़ा आदमी के दिमाग में निरन्तर रेंगता रहता है, जो उनमें परस्पर छोटा- बड़ापन का विभेद पैदा करता है। मैं बड़ा तू छोटा। बस इसी में जीवन बीत जाता है। कौन किस जाति में पैदा होगा,इसके निर्धारण का अधिकार उसके वश में नहीं है।
चोर ,डकैत,राहजन,मिलावटखोर, गबनी, हत्यारे,सभी प्रकार के अपराधी,शूटर,अपने काम के प्रति ईमानदार हैं कि वे जातिवाद में विश्वास नहीं करते। यह अलग बात है कि नेताजी जातिवाद में कुछ कम नहीं हैं।वे प्रायः उसी क्षेत्र से टिकट लेते हैं,जहाँ उनके जाति विरादरी के लोगों का बाहुल्य होता है। बड़े - बड़े अधिकारी और साक्षत्कारकर्ता कभी भी जातिवाद से विमुख नहीं होते ,वरन वे उसमें बढ़ - चढ़कर हिस्सा लेते हैं। अपनी जाति वालों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर उनका चयन करना उनकी प्राथमिकता में होता है। इसी के बीच एक और नई चीज भी उभरती है,जो उभरने नहीं दी जाती ;वह होता है भाई- भतीजावाद और पुत्र -पुत्रीवाद।मूल्यांकनकर्ता इस ओर विशेष ध्यान देकर जातिवाद और परिवारवाद का अनुपालन करते हुए देखे जाते हैं। राजनीति के क्षेत्र में ये परिवारवाद अपने चरम पर है। विधायक, सांसद, मंत्री आदि सभी उनके ही बेटे -बेटियाँ ,बहुएँ और दामाद हों,इस बात का ध्यान रखा जाना नेताओं का प्रथम लक्ष्य होता है ।यह मुद्दा जातिवाद से भी ज्यादा रंगदार और राजदार है। इसके लिए जो भी आवश्यक अनियमितताएं करनी हों,बखूबी की जाती हैं। इस कार्य के लिए यदि विरोधियों का मुँह बन्द करना /करवाना पड़े ,तो गुरेज कैसा ? राजनीति में सब कुछ करणीय है,जायज है ,अनिवार्य है। अन्यथा उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ सकता है।
जातिवाद के खेल की पराकाष्ठा तो तब हो गई ,जब यह हिन्दू मंदिरों में भी घुस गया।जातिवाद के नाम पर मंदिर बनने लगे।(मैं किसी मंदिर का नाम नहीं लिखना चाहता।) भगवान राम ठाकुर हो गए और भगवान श्रीकृष्ण यादव हो गए। हद तो तब पार हो गई जब श्रीकृष्ण को जादों ठाकुर करार दिया गया। ' ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरि छाछ पे नाच नचावैं।'वाली बात झूठी कर दी गई। परशुराम भगवान को ब्राह्मणों ने लपक लिया। इसी प्रकार अनुसंधान होता रहा तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा माता, सरस्वती माता ,हनुमान जी आदि सबके मन्दिरों पर ये जातिवादी कब्जा कर लेंगे। शुरूआत हो गई है, धर्म में जातिवाद जितना घुसेगा,उतने ही नए- नए रंग बिखेरेगा।आदमी वस्तुतः धर्म-भक्त नहीं,जाति- भक्त है। धर्म की आड़ में कितने खेल खेले जा रहे हैं,किसी से छिपा नहीं है।
लेखकीय मंतव्य में जातिवाद भले ही नरक का द्वार हो और मनुष्य और मनुष्यता के लिए अंधकार हो,किन्तु जो इस नरक में निरन्तर मगन हैं,उनकी तो यहीं पर लगन है। उन्हें इस लेखक की सत्य बात भी भला क्यों भाए ? उन्हें तो यह जातिवाद ही सर्वथा रास आए !उनके लिए तो यही स्वर्ग का द्वार है, इसलिए अनिवार है। उनके लिए उपहार है।हमेशा नकद ही नकद है, न कभी उधार है।जातिवाद ही उनका सर्वोत्तम प्यार है। उनके जीवन की पतवार है।इसलिए उनकी आँखों ही नहीं, उनके दिलो-दिमाग में भी चढ़ा हुआ खुमार है। जाति और जातिवाद में कोई कितने भी दोष गिनाए ,पर जातिपरस्तों को यह बात क्यों पसंद आए! होटल हॉस्पिटल में जातिवाद कहाँ चला जाए?कोई अपने जाति के डॉक्टर से इलाज क्यों नहीं कराए ? जब सामने मौत खड़ी नज़र आये तो जमादार का खून चढ़वाने में किंचित नहीं शरमाए! वहाँ ये जाति और तज्जन्य वाद किस बिल में घुस जाए! इसलिए हे लोगो !आओ जाति - जाति का खेल खेलें,जश्न मनाएँ । बिल्कुल भी नहीं तिलमिलाएँ । और आगे बढ़ें,जातिवाद का जहर पियें और पिलाएँ। इतना ही नहीं ,यही फिर भी तृप्ति न हो तो प्याऊ भी लगवाएँ। पर जातिवाद को कम न होने दें।पढ़े -लिखों के लिए यह बहुत जरूरी है।क्या फर्क पड़ता है,यदि देश और समाज में आदमी की आदमी से बढ़ रही दूरी है।जातिवाद जिन्दावाद।मानवतावाद बरबाद।
शुभमस्तु !
03.08.2025●1.45आ०मा०
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