बुधवार, 20 अगस्त 2025

सौरभ-सी शुचि कीर्ति [ दोहा ]

 444/2025

    

       

[खंजन,सौरभ,दुकूल,जीवनदान,

समर्थ ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत  स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

खंजन  जैसे   नेत्र   हैं, अधर रसीले   लाल।

जो देखे  वह रीझता,गजगामिनि तव   चाल।।       

दिखते खंजन  मेड़ पर,फुदक रहे  अनिकेत।

चंचल नटखट नयन की,पता न गति का हेत।।


पाटल   लहके   बाग  में, सौरभ उड़े   अपार।

किया परस  ज्यों हाथ  ने, मन को लिया उबार।। 

सौरभ-सी शुचि  कीर्ति का,जग में  है  विस्तार।

महामना    मानव   वही,  करे  जगत उपकार।।


ओढ़े    खड़ी दुकूल को, पाटल कलिका  धीर।

अवगुंठन  निज  खोलती, होती अरुण  अबीर।।

मर्यादा    का    रूप  है,  मुख  पर पड़ा  दुकूल।

शर्माती   कलिका   खड़ी, बनी नहीं है     फूल।।


पर   उपकारी   देव  सम, करता जीवनदान।

नहीं   जगत में  एक भी,उस नर -सा  उपमान।।

रक्तदान    करके    करें,   बहुत लोग  उपकार।

जाग्रत   जीवनदान    ये,मानव का    उपहार।।


प्रभु   समर्थ   ऐसा  करें, करें देश   की  भक्ति।

जन-जन की सेवा सदा,करे'शुभम्' निज शक्ति।।

अभिनेता      धनवान   भी, होते  हुए   समर्थ।

नहीं  देश -  सेवा  करें,फिर   धन का क्या अर्थ।।


                 एक में सब

सौरभ खंजन- कीर्ति का,ओढ़े नहीं  दुकूल।

है समर्थ  वह आप में, जीवनदान     समूल।।


शुभमस्तु !


20.08.2025●4.00आ०मा०

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