480/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अब मिर्च तो मिर्च है,उसे लगना ही है।यह अलग बिंदु है कि वह कहाँ लगेगी।सबसे पहले तो खेत में अपने पेड़ पर ही लगती है। वही उसका उद्भव केन्द्र है।उसके बाद कोई ठिकाना नहीं कि वह कहाँ जाकर लग जाए ! कभी किसी की जीभ में तो कभी किसी के दिल में जाकर लग जाए। कभी- कभी यदि करेले जैसी अप्रिय और सत्य गुणकारी बात आ जाए तो 'कहीं और' भी जाकर जा लगे। इस प्रकार मिर्च ने साहित्य के खेत में भी अपना अड्डा जमा लिया और मिर्चें लगना एक प्रचलित मुहावरा बन गया।हाँ,इतना अवश्य है कि मिर्च का जन्म ही लगने के लिए हुआ है,तो उसे लगना ही है। लगेगी ही और लगती भी है।
ऐसा भला कौन है जिसे मिर्च या मिर्ची लगने का गूढ़ अनुभव न हो। जीवन में सबको कभी न कभी ये लगनी ही है।मिर्च उस सत्य का प्रतीक है जो झूठ को बर्दाश्त नहीं करता।मिर्च उस यथार्थ का पर्याय है जिसे सहन कर पाना सबके वश में नहीं है। पर क्या किया जाए जब सामने आ ही जाय तो लगना भी अनिवार्य है। सभी अपना -अपना काज करते हैं,मिर्च का भी लगना शुभ महत कार्य है।
मिर्च का अपना एक अलग स्वाद है।एक अलग ही संवाद है।वह जो करती है ,वह नहीं कोई अपराध है। यह उसका कर्तव्य है। सत्य और यथार्थ का मंतव्य है। यह अलग बात है कि अलग -अलग पात्र में उसका अलग -अलग ही गन्तव्य है। जो मिर्च में है वह जीरे हल्दी सौंफ अजवायन आदि में अलभ्य है। इस स्तर पर मिर्च सबसे निराली है।कभी वह हरी है कभी लाल है तो कभी काली है।जो भी लेता मिर्च का स्वाद बजा उठता युगल कर से ताली है।
प्रकृति ने मिर्च बनाई तो थी भोजन के स्वाद के लिए किन्तु उसकी बहु आयामी उपयोगिता ने चमत्कार ही कर दिया। साहित्य के खेत में भी प्यार भर दिया।लगती है तीखी फिर भी लोग छोड़ते नहीं हैं। मिर्च यदि उचित मात्रा में पड़ जाए तो वही भोजन सही है। ये अलग बात है कि वहाँ नमक का साथ और स्वाद भी जरूरी है।जिस प्रकार जीवन में सब कुछ संतुलित होना चाहिए ,वैसे ही मिर्च को भी संतुलित होना अनिवार्य है ।अन्यथा स्वाद और 'आनन्द के स्थान' पर उसे लगना ही लगना है,जो सबको बर्दाश्त नहीं होना है। 'अति सर्वत्र वर्जयेत' के अनुसार मिर्च का भी संतुलन रहे,यह आवश्यक ही नहीं,अनिवार्य भी है।
कुछ लोगों की जबान में मिर्च का वास है। किसी को स्वाद देने के स्थान पर 'लगना' ही 'लगना' उसका काज है। मिर्च को अपनी इसी अदा पर नाज है।जुबान से बात में और बात से कान में और कान के बाद कहाँ जाकर लग जाए ,यह पूर्व निर्धारित अथवा पूर्व घोषित नहीं है कि वह कहाँ जाकर लगेगी ! पेड़ का उत्पाद जब जुबान में पैदा होने लग जाए तो क्या-क्या गज़ब नहीं ढाए? यदि आप नहीं मानें तो किसी नेता के भाषण में मिर्च भरे ताने।नेताओं की जुबान से कभी हरसिंगार के फूल नहीं झरते। वहाँ तो मिर्चों का गोदाम है।इसलिए मिर्चों के पाउडर को बिखेरना उसका काम है। अब नेता चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, उसकी जिह्वा पर मिर्चावास है तो श्रोता को मिलना ही मिलना उसी का स्वाद है।इससे अधिक उम्मीद उससे की भी नहीं जा सकती।वह लगा देता है मिर्चें झोंकने में अपनी पूरी शक्ति। नेता मिर्चों की ही तो किया करता है भक्ति।मिर्चों में ही होती है नेताजी की अनुरक्ति।
केवल नेता ही नहीं ,समाज में ऐसे बहुत सारे नागरिक /नागरिकाएँ हैं,जिनकी जीभ पर मिर्चों का भंडार है। मिर्चों से फुलफिल उनका हर शब्द ,हर उद्गार है।वहां मिर्चों ही मिर्चों की भरमार है।उन्हें तो अन्यों को मिर्ची लगाने का खुमार है। सास और बहुओं में ये मिर्ची तथ्य शुमार है।इसीलिए तो घर परिवार में कलह का बुखार है।
दूसरों को मिर्च लगाने में लोगों को आत्म संतुष्टि मिलती है।आनन्द आता है। अपने आनंद प्राप्ति के लिए वे मिर्च उगलना क्या उसकी बरसात भी कर सकते हैं।जिनका जो काम है,उसके बिना रह भी नहीं सकते हैं।जब तक वे किसी पर मिर्च न बुरक लें,उनकी दाल रोटी हजम नहीं होती। वे मिर्चें ऐसे छिड़कते हैं कि वह कोई शालिग्राम का प्रसाद हो।उनकी मिर्ची दान से भले ही कहीं फसाद हो, इससे उन्हें क्या ! छप्पर में लगा के आग जमालो दूर खड़ी! अब कोसती रहो तुम यहाँ खड़ी-खड़ी घड़ी-घड़ी । उन्हें तो मिर्ची बुरकन में ही मिलती रबड़ी। इस प्रकार मिर्च के सकारात्मक और नकारात्मक : दोनों ही पहलू हैं।यह तो पात्र-पात्र की बात है कि किसको कितनी लगती है और कौन लगाता है।
शुभमस्तु !
30.08.2025 ●9.45 आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें