454/2025
सभ्यता का आच्छादन
[अतुकांतिका]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
देह और देहंगों को
ढँकना सीख लिया,
सभ्य तो हो गया होगा
पर उस मन को तो
ढँका ही नहीं
जो युग- युग से नंगा है
असभ्य है।
यदि वह भी ढँक जाता
ये आदमी
और का और हो पाता,
पर नहीं समझा गया
इतना जरूरी
क्योंकि वही तो खिलाता है
कानों को रस
आँखों को सर्वश
रसना को मधु रस।
सभ्यता कपड़ों में नहीं
भावना में है,
मन की कामना में है,
कोई किसी कुत्ते को
असभ्य नहीं कहता !
जबकि वह कोई अधोवस्त्र
नहीं गहता ,
नग्न ही रहता।
कुछ लोग हैं जो
पंच वस्त्रों में भी असभ्य हैं,
दिगम्बरी संत या नागा बाबा
बिना वस्त्रों के भी भव्य हैं।
असभ्यता वहाँ है
जहाँ आदमी को
आदमी नहीं
कीड़ा-मकोड़ा समझा जाए !
रूप दर्शन के लिए
पहरा लगाया जाए,
मतों का दान लेकर
उनका मान मर्दन किया जाए,
नेताओं के द्वारा आम आदमी क्या
अधिकारियों को भी
दुत्कारा जाए,
मन्दिरों में देव दर्शन में
उत्कोच लिया जाए,
वी आई पी दर्शन का
धंधा चलाया जाए।
ये सूट ये सदरी
ये टाई की रबड़ी
किसको दिखाते हो,
नंगे हो असभ्य हो
ये अभिनय
किसे दिखलाते हो ?
ये सब नकली आच्छादन हैं
जैसे कोई शवाच्छादन हो
जिसे जलना ही जलना
ये अच्छादन भी उतरना है,
कपड़े असभ्यता की पराकाष्ठा हैं
कुत्ते बिल्लियों से इतर
कुछ भिन्नता का वास्ता हैं
शुभमस्तु !
22.08.2025 ●3.15 प०मा०
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