391/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आज रीयल का नहीं 'रील' का जमाना है।यह 'रील युग' है।रीयल कुछ और होता है,रील कुछ और ही कहती है। लोगों के सिर पर 'रील' का भूत ऐसे सवार हुआ है कि रील के चक्कर में उन्हें अपने प्राण तक गँवा देने में कोई आपत्ति नहीं है। जीवन रहे या न रहे पर 'रील' बन जानी चाहिए।यही जज़्बा, जुनून और जोश में झूमते हुए वे जूझ रहे हैं।इस विषय में क्या नवयुवक क्या नवयुवतियाँ, अपने माँ - बाप को भी नहीं बूझ रहे हैं।जुनून ही ऐसा है।लगता है इसकी दुम पर पैसा है।
बनाई जाने वाली रीलों की कल्पना नहीं की जा सकती। कोई ऊँची पहाड़ी की कगार पर खड़ा- खड़ा रील बना रहा है।भले ही किसी पल वह सैकड़ों फीट नीची गहरी खाई में जा पड़े। बहुत सारे गिरे भी हैं। कोई -कोई बीच नदी की तीव्र धारा में आकंठ डूबा हुआ रील बना रहा है।कोई युवती बीच सड़क पर नंगा नाच कर रही है। कोई रेलवे पटरी क्रॉस कर रहा है ,तो कोई ट्रेन की छत पर ही करतब दिखाने में रील मग्न है। जितने लोग उतनी कलाएँ कलाकरियाँ उजागर हो रही हैं।यही लोग यदि देश और समाज के लिए कुछ करें,तो देश का उद्धार हो सकता है।
रील निर्माण के मूल में व्यक्ति के आत्म प्रदर्शन की अंतर्निहित भावना प्रकट हो रही है। कुछ लोग तो अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं ; कुछ भी समझ में नहीं आता।कुछ युवक - युवतियों का उद्देश्य अपने हँसी के कारनामे दिखाकर मनोरंजन करना है।कहीं-कहीं तो फूहड़ता की चरम सीमा पार करते हुए शर्मसार हो रहे हैं। यह रीलबाजी मोबाइल की सुविधा के कारण आई है।
इस रीलबाजी से आज का युग ही एक नया वाद 'रीलवाद' कहलाने लगा है। क्या असली है और क्या नकली है ,कुछ समझ में नहीं आता।कोरा मनोरंजन करना या मखौल बनाना उनका मुख्य लक्ष्य बन कर रह गया है। समझ में नहीं आता कि व्यक्ति ,समाज और देश किस दिशा में जा रहा है।क्या इस रीलबाजी का कोई रचनात्मक भविष्य है अथवा इसका यों ही अंत के अनंत गर्भ में समा जाना है।काश ये रीलबाजी देश और समाज के लिए कुछ काम आती। पर वास्तविकता यही है कि उनके जाने देश और समाज भाड़ में जाए ,उन्हें क्या करना। कभी कभी तो वे पूरे के पूरे भाड़ में चले जाते हैं और रीलबाजी एक मजाक बनकर उनका दुर्दांत ही कर देती है।
सुना है कि नई पीढ़ी की ये रीलबाजी की हरकतें उनके युट्यूबर बनने से उन्हें लोकप्रियता दिलाती हैं और आर्थिक लाभ भी प्रदान करती हैं।पैसा कमाने का लालच भी ऐसा कुछ करा सकता है।ये रीलबाज झूठी कहानियां बनाकर भी समाज को दिग्भ्रमित करते हैं। नई पीढ़ी की यह गुमराहगी उसे कहाँ ले जाएगी,कहा नहीं जा सकता। व्यर्थ की हा हा ही ही किस रचनात्मकता के लिए है,सोचनीय है।इस ओर बड़ों,माता पिता और गुरुजनों को आगे आना चाहिए और भटकती हुई पीढ़ी को देश और समाज के लिए रचनात्मक बनाने में योगदान करना चाहिए।
शुभमस्तु !
03.08.2025●6.45आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें