शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

सावन के घन [ अतुकांतिका]

 385/2025

  

                 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सावन के घन

रिमझिम बरसे

विरही जन

रजनी भर तरसे

प्रिया मिलन की चाह।


अमराई में 

पीहो- पीहो 

मोर कर रहे

बादल गरजे

शोर भर रहे

रपटीली हर राह।


टर्र -टर्र करते 

करते नर मेढक

कर-कर के आह्वान

याद मेढकी की

आती है।


झूले नहीं बाग में

अब वे नहीं झूलती

ब्रजबाला 

मोबाइल थामे

कुछ और देखती।


हरी घास की

मखमल पर

चलने का सुख 

 वह मानुस क्या जाने 

जो बसता है

कंकरीट के

सघन वनों में।


आओ पावस का

आनंद मनाएँ 

भूल न जाएँ

सावन की वे

झर -झर झरतीं

विरल फुहारें।


शुभमस्तु !


01.08.2025 ● 2.30 आ०मा०

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